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श्रीमद् विजयराजेन्द्ररि-स्मारक-प्रथ हिन्दी जैन कोई ऐसा पूरा पद नहीं मिलता। किन्तु भैया भगवतीदास के ही समकालीन कवि भूधरदास के भी विषय में हम ऐसा नहीं कह सकते । इनकी कई रचनाएं संत कबीर के ढंग की हैं। जैसे
भगवन्त मजन क्यों भूला रे ।। टेक० ॥ यह संसार रैनका सुपना, तनधन वारि बबूला रे ॥१॥ इस जीवन का कोन भरोसा, पावक में तृण पूला रे ।
काल कुदार लिये शिर ठाड़ा, क्या समझै मन फूला रे ॥२॥ इ.' और, अंतर उज्ज्वल करना रे भाई।।
कपट कपान तजें नहीं तबलौं, करनी काज न सरना रे ।। बाहिर भेष क्रिया उर शुचिसों, कीये पार उतरना रे । नाहीं है सब लोकरंजना, ऐसे वेद न वरना रे ।। कामादिक मल सो मन मैला, भजन किये क्या तिरनारे ।
भूधर नील बसन पर कैसे, केसर रंग उछरना रे ॥ तथा, मुन ठगिनी माया, तँ सब जग खाया।
टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पछताया ॥
केते कंथ किये ते कुलटा, तो भी मन न अघाया । किसही सौं नहिं प्रीति निवाही, वह तजि और लुभाया । भूधर ठगत फिरत यह सब कौं, भौ, करि जग पाया।
जो इस ठगनी को ठग बैठे, मैं तिसको सिर नाया ॥ इसके सिवाय कवि भूधरदास के पदसंग्रह में एक पद ऐसा भी आता है जिस में चरखे का रूपक है और जिसकी कुछ पंक्तियां ये हैं
चरखा चलता नाही, चरखा हुआ पुराना ॥ टेक० ॥ . पग खूटे दुअ हाल न लागे, उर मदरा खखराना । छीदी हुई पांखड़ी पसली, फिरै नहीं मनमाना ॥ रसना तकलीने बल खाया, सो अब केसे खूटे । सवर सूत सूधा नहिं निकसै, घड़ी घड़ी पल टूटै ।।
१. वही, पृ. ६४ ।
२. वही, पृ० ६८-७० ।
३. वही, पृ० ७२-३ ।