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साहित्य संत-साहित्य के निर्माण में जैन हिन्दी-कवियों का योगदान । ६६७ उदाहरण मिलते हैं जो संत कबीर साहब जैसे कवियों की रचनाओं में उपलब्ध होते हैं। इन्होंने अपनी एक रचना ' अध्यात्मगीत' में दांपत्यभाव के अनुसार भी वर्णन किया है। जिसकी शैली विशेष रूप से उल्लेखनीय है । जैसे,
मेरा मन का प्यारा जो मिलै, मेरा सहज सनेही जो मिलै ।। टेक०॥
मैं विरहिन पियके आधीन, यो तल फौं ज्यों जलबिन मीन ॥ ३ ॥ बाहिर देखू तो पिय दूर, वट देखे घट में भरपूर ॥४॥ घट महीं गुप्त रहै निरधार, बचन अगोचर मन के पार ॥५॥ अलख अमूरति वर्णन कोय, कवधों पिय को दर्शन होय ॥ ६ ॥ सुगम सुपंथ निकट है ठौर, अंतर आउ विरह की दौर ॥ ७॥ जउ देखौं पिय की उनहार, तनमन सर्वस डारों वार ॥ ८॥ होहुं मगन मैं दरशन पाय, ज्यों दरिया में बंद समाय ॥ ९॥ पिय को मिलों अपनपो खोय, ओला गल पाणी ज्यौं होय ॥१०॥ मैं जग ढूंढ फिरी सब ठौर, पिय के पटतर रूपन ओर ॥११॥ पिय जगनायक पिय जगसार, पिय की महिमा अगम अपार ॥१२॥
बसों सदा मैं पिय के गांउ, पिय तज और कहां मैं जांउ ॥१७॥
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पिय मोरे घट मैं पिय माहि, जलतरंग ज्यों द्विविधा नाहिं ॥१८॥
पिय सुमिरन पिय को गुणगान, यह परमारथ पंथ निदान ॥३०॥
कहा व्यवहार 'बनारसी' नाव, चेतन सुमति सटी इक ठांव ॥३१॥'
यहां पर जान पड़ता है कि इन्हें भी 'साहब' और 'सुरति' का संबंध ही पसंद है। इसी प्रकार इन्होंने अपनी एक अन्य रचना 'पहेली' में भी जो ‘सुमति' एवं 'कुमति' नामक दो सपलियों का रूपक बांधा है वह भी प्रायः इसी ढंग का है । ये उस रचना का आरंभ इन दोनों की तुलना के साथ करते हैं और इन दोनों में एक संक्षिप्त वार्तालाप कराकर अंत में कहते हैं
6. 'बनारसीविलास' पृ. १५९-६२ ।