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साहित्य संत-साहित्य के निर्माण में जैन हिन्दी-कवियों का योगदान । ६६९ को नहीं मूंड सका; जिस किसीने अपने चित्त को मूंड लिया उसीने संसार को जीत लियो" इत्यादि । संत कबीर साहब आदि संत कवियों की भी रचनाओं का प्रधानतः यही विषय है और उनकी कथन-शैली भी इन पंक्तियों का ही अनुसरण करती जान पड़ती हैं।
अपभ्रंश में लिखनेवाले जैन कवियों के कुछ समय पीछे अथवा वस्तुतः विक्रम की १५ वीं से लेकर उसकी १९ वीं तक की शताब्दी का युग विभिन्न प्रकार के सुधारपरक
आंदोलनों का युग रहा और इसीके अंतर्गत अन्य संस्कृतियों के साथ भारतीय संस्कृति का पूरा संघर्ष भी हुआ जिसके फलस्वरूप यहां के सभी धर्मावलंबी अपनी अपनी ओर से सजग
और सतर्क होने लग गए। हिंदुओं के शव तथा वैष्णव धर्मों में तो सुधार होने ही लगे, इस्लाम के सूफी संप्रदाय का भी यहां पर इसी समय विशेष प्रचार हुआ तथा जैन धर्म के अनुयायियों में से भी कईने अपनी विचारधारा के अनुसार सुधारपरक संप्रदाय स्थापित किये।
वि. सं. १६५७ के लगभग मध्य भारत में तारणस्वामीने दिगंवर संप्रदाय के अनुयायियों में अपना 'तारण-पन्थ' चलाया और वि. सं. १५०९ में गुजरात में लौंकाशाहने श्वेताम्बर सम्प्रदाय में जो आन्दोलन खड़ा किया था उसके फलस्वरूप सं. १७१० में श्वेताम्बर संप्रदायवालों का भी एक वैसा ही ' ढूंढिया ' वा स्थानकवासी नामक साधुमार्ग प्रतिष्ठित हुआ। इसके सिवाय प्रसिद्ध विद्वान् जैन कवि बनारसीदास ( सं० १६४३-१७००) ने उत्तर प्रदेश में इसके पहले से ही ' तेरापंथ ' संज्ञक एक आंदोलन का प्रचार आरंभ कर दिया था और इन सारी बातों के परिणामस्वरूप उपर्युक्त जैन मुनियों की परम्परावालों को और भी प्रोत्साहन मिला।
__ जैन कवि बनारसीदास का जन्म जोनपुर नगर में हुआ था और वे एक धुरंधर पण्डित एवं निपुण कवि भी थे । वे श्वेताम्बर संप्रदाय के अनुयायी थे, किन्तु ' समयसार ' जैसे प्रन्थों के गम्भीर अध्ययन और आत्मचिंत्तन के कारण उनके विचारों में क्रांति आ गई। फलतः उन्होंने अपने निजी मत का प्रचार करना आरंभ किया तथा उनके ग्रन्थों में उप. लब्ध विचारधारा की कड़ी आलोचना भी होने लगी। किन्तु उन्होंने उसकी चिंता नहीं की
और अपने विचार-स्वातंत्र्य के उन्होंने अपने कई अनुयायी भी बना लिए । ये न केवल कबीरसाहब जैसे संत कवियों कीसी शैली में लिख सकते थे, अपितु अपने समकालीन संत
१. मुंडिय मुंडिय मुंडिया। सिरु मुंडिउ चित्तु ण मुंडिया।
चित्तहं मुंडणु जिं कियउ । संसारहं खंडणु तिं कियउ ॥ १३५ ॥ वही, पृ० ४०॥
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