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साहित्य
जैन विद्वानों की हिन्दीसेवा |
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शयोक्तिपूर्ण उपस्थित करने में वे हमेशा दूर रहे हैं। उनका मत है कि यह आत्मा का वास्तविक रूप नहीं है; अतः विकृत रूप का वर्णन करना अच्छे कवि अथवा लेखक का लक्षण नहीं है । बनारसीदासजी को आधुनिक हिन्दी साहित्य में इसी कारण सर्वोच्च स्थान दिया गया है। आत्मा और जड़ का सम्बन्ध कविने नदी की धारा के साथ किस प्रकार संगत किया है । वही देखिये -
जैसे महिमंडल में नदी का प्रवाह एक
ताही में अनेक मांति नीर की दरनि है । पाथर के जोर तहां धार की मरोर होत
कांकर की खानि तहा झाग की झरनि है । पौन की झकोर तहां चंचल तरंग उठे
भूमि की निचानि तहां भौंर की परनि है । तैसे एक आत्मा अनंत रस पुद्गल
दोह के संयोग में विभाव की भरनि है ।
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गीतिकाव्य - गीत काव्यों में भावना की अनुभूति अधिक गहरी होती है; इस लिए गीतकाव्य भी जैन साहित्य का प्रमुख भाग रहा है। जितने भी हिन्दी गद्य और पद्य साहित्य के विद्वान हुये उन्होंने गीत, पद, भजन आदि के रूप में थोडा --बहुत अवश्य लिखा है । कितने ही कवियों ने तो अपनी रचनाओं के आगे गीत शब्द भी जोड़ दिया है। इससे उनके गीति साहित्य के प्रति अनुराग का पता लगता है । इन में पूनो का मेघकुमार गीत, सकलकीर्ति का मुक्तावलि गीत, नेमीश्वर गीत, णमोकार फल गीत आदि उल्लेखनीय हैं । ब्रह्मगुलाल, पाण्डे जिनदास, बनारसीदास, हर्षकीर्त्ति, आनन्दघन, अजयराज, दौलतराम, रूपचन्द, द्यानतराय, जगतराम, बुधजन, हीरानन्दि आदि के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं । इन विद्वानोंने सैंकडों की संख्या में पद एवं भजन लिखे हैं जो भाव और भाषा दोनों ही दृष्टियों से उत्तम हैं। यही नहीं, ये कवि विभिन्न राग-रागनियों के भी जानकार थे, क्यों कि उन्होंने अपने पद कितने ही राग-रागनियों में लिखे हैं । जैसे- प्रभातराग, रामकली, विलावल, आर्यावर्त, केदार, सोरठा, विहाग, मालकोश, भैरवी, मल्हार, सारंग, झंझोटी आदि कितने ही प्रकार की राग-रागनियों में इनके लिखे हुये पद मिलते हैं । जैन भण्डारों में संगृहीत गुटकों में इन पदों एवं भजनों का खूब संग्रह मिलता है। जिसका अधिकांश भाग अभीतक प्रकाश में भी नही आया है ।