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साहित्य
जैनधर्म की हिन्दी को देन । निरुक्ति ( भाषा ) से समय-समय पर उपस्थित होनेवाली जनता की सभी भाषाओं का पक्ष लिआ था। लेकिन उसका अक्षरशः पालन कठिन था, क्योंकि धर्म प्राचीनता से विमुख नहीं होते-इतिहास, भाषातत्व, मानवतत्व के लिये यह अधिक लाभदायक भी है। बौद्धोंने चार शताब्दियों से कुछ ऊपर बुद्ध-वचनों को मौखिक रखकर ईसा-पूर्व प्रथम शताब्दी में सिंहल में लेखबद्ध किया। लेखबद्ध होने के बाद भाषा में परिवर्तन की उतनी ही संभावना रह जाती है, जितनी कि पुरानी पोथियों को देख कर नई पोथियों के उतारनेवाले लिपिकर या संशोधक कर सकते हैं । आज का पालि-त्रिपटक ऐसे ही थोड़े संशोधनों के साथ वही है, जिसे कि सिंहलराज वगमबाहु के समय तालपत्र पर उतारा गया । ले केन इसका यह अर्थ नहीं कि पुस्तकों या सूक्तों की संख्या बीच में घटाई-बढ़ाई नही गई । गोस्वामी तुलसीदास को दिवंगत हुये अभी तीन शताब्दियां भी नहीं हुई हैं, लेकिन उनके रामायण में कितने क्षेसक हो गये, यह हम स्वयं देख रहे हैं । पिटकों में भी इस तरह के बहुत से क्षेपक हुए हैं। जिस पालि त्रिपिटक को सिंहल में लेखबद्ध किया गया, वह स्थविरवादियों का था। उनके अतिरिक्त १७ और पुराने निकाय (सम्प्रदाय ) थे । जिन के भी अपने-आने त्रिपिटक थे । उनमें सर्वास्तिवाद को छोड़ कर दूसरों के बहुत थोड़े से ही ग्रंथ चीनी अनुवाद के रूप में आज प्राप्य है। ये भिन्न-भिन्न प्राकृतों में थे, और सर्वास्तिवाद तथा उसके बाद आनेवाले महायान के ग्रंथ एक प्रकार की नई संस्कृति में थे, जिन्हें गाथा संस्कृत कहा जाता है, और जो आने व्याकरण में संस्कृत, प्राकृत और उभय-विमुख कितने ही व्याकरण के नियमों से न्यून-विन्यून बंधे हुए हैं । इस प्रकार बौद्ध ग्रंथ आने काल की निरुक्तियों में बंध कर आगे आनेवाली जनता के लिये दुरूह हो गये।
तो भी स्वकीय निरुक्ति के महत्व को बौद्धों ने कभी भुलाया नहीं । इसीलिये बौद्धधर्म जिन-जिन देशों में भी फैला, वहां वे देश की भाषा में अनुवादित किये गये, और इन अनु. वादों के प्राठ का भी उतना ही पुण्य माना गया जितना कि मूल का। यदि यह न माना गया होता तो तिब्बती, चीनी, मंगोल आदि भाषाओं में आज उपलब्ध हमारे ग्रंथों की विशाल अनुवाद-राशिका लाभ न होता । तो भी जहां तक भारतवर्ष का सम्बन्ध था, यह प्रयत्न उतना नहीं किया गया कि बुद्ध-वचन को समय-समय पर उपस्थित होनेवाली सभी जन. भाषाओं में कर दिया जाये। कुछ ग्रंथों का अनुवाद अवश्य किया गया होगा; किन्तु भाषापरिवर्तन के साथ उनकी उपयोगिता न रहने के कारण वे अपनी देह में ही जरा को प्राप्त हो समाप्त हो गये। भारत में तो बौद्ध धर्म के उच्छिन्न हो जाने से ऐसे बचे-खुचे ग्रंथों के मिलने की आशा ही नहीं, किन्तु सिंहल या दूसरे बराबर से बौद्ध रहते आये देशों में भी उन पुराने