________________
जैन विद्वानों की हिन्दीसेवा
श्री कस्तूरचंद कासलीवाल M. A शास्त्री, जयपुर.
हिन्दी साहित्य के इतिहास को पढ़ने के पश्चात् 'जैन विद्वानों की हिन्दीसेवा' यह प्रश्न अनोखा सा मालूम पड़ता है; क्यों कि पूरे ७७५ पृष्ठ के इतिहास में केवल अपभ्रंश काल में आचार्य हेमचन्द्र, सोमप्रभसूरि तथा मेरुतुंग तथा शेष पुस्तक में बनारसीदास, दौलतराम तथा छोहल आदि ५-७ विद्वानों के नामोल्लेख के अतिरिक्त जैन विद्वानों की हिन्दी रचनाओं पर कोई प्रकाश नहीं डाला गया है। इसके पढ़ने के पश्चात् हमें ऐसा मालूम होता है कि मानों जैन विद्वान् हिन्दी साहित्य से हमेशा विमुख रहे हों; क्यों कि हिन्दी के इतने विशाल साहित्य में जैन विद्वानों की रचनाओं का कहीं नामोल्लेख नहीं मिलता। किसी भी पाठ्यपुस्तक
।
जैन विद्वानों द्वारा रचे हुए साहित्य का कोई अंश संकलित नहीं किया जाता। ऐसी दशा में 'जैन विद्वानों की हिन्दी सेवा ' यह वार्ता कुछ वेतुकी सी जान पडती है । किन्तु हमारे विचार से हिन्दी साहित्य की जितनी सेवा जैन विद्वानोंने की है यदि उसका मूल्यांकन किया जावे तो वह सेवा इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठो में लिखने योग्य है । विक्रम की ७-८ वीं शताब्दी से ले कर २० वीं शताब्दी तक जैन विद्वानों ने हिन्दी भाषा की अपरिमित सेवा की है । इस साहित्य सेवा के लिये कितने ही विद्वानोंने अपने जीवन की बाजी लगादी। जैनों ने हिन्दी में उस काल में रचनायें करना प्रारम्भ कर दिया था जब कि हिन्दी में लिखना विद्वत्ता से दूर हटना था तथा संस्कृत के विद्वानों ने उसे देशी भाषा का नाम दे दिया था । किन्तु भाषा-व्यवहार के सम्बन्ध में जैन विद्वानों का दृष्टिकोण सदा ही असाम्प्रदायिक रहा है अर्थात् युगानुसार और जनता की मांग के अनुसार नवीन भाषा में रचना करना अथवा संस्कृत, प्राकृत आदि भाषा के ग्रंथों को हिन्दी भाषा में अनूदित करना उनकी अपनी विशेषता रही है । इस युगानुगामी साहित्य सेवा से हमें यह लाभ हुआ है कि आज भारत की सभी प्रमुख भाषाओं जैसे - संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, मराठी, तामिल, तेलगू, कन्नड आदि में अपार जैन साहित्य मिलता है। स्वयं भगवान् महावीरने अपनी देशना अर्द्धमागधी भाषा में दी थी जो उस समय की जन-साधारण की भाषा थी । यही क्रम उनके निर्वाण होने के पश्चात् भी रहा और जब ७-८ वीं शताब्दी में जनता संस्कृत और प्राकृत रचनाओं से ऊब चुकी तो जैन विद्वानों ने संस्कृत और प्राकृत का पल्ला छोड़ कर अपभ्रंश भाषा
( ८१ )