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साहित्य
जैनधर्म की हिन्दी को देन ।
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थोड़े से पद सूरदास से पहले मिलते हैं। कौरवी - जो कि हमारी साहित्यिक हिन्दी की जनभाषा है - के क्षेत्र के प्रत्येक कस्बे और शहर में जैन भद्र-परिवार रहते, और सदा से रहते खाये हैं | सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बुलन्दशहर, रोहतक, हिसार, कर्नाल, अम्बाला आदि जिलों में मूलवासी जैन परिवार विद्यमान हैं। मुस्लिम - काल के असहिष्णु वातावरण में भी इन्होंने धर्म के साथ-साथ अपने साहित्य की रक्षा की। यहां के मन्दिरों के पुस्तकालयों से हिन्दी को बड़ी आशा है ।
कवि बनारसीदास और दूसरे कितने ही जैन कवियों की कृतियां मिल चुकी हैं, जिनसे हमें यह पता है कि जैनों की देन हिन्दी के लिये नगण्य नहीं है । पर अभी उनकी देनों का पूरा पता लगाना बाकी है। हिन्दी ( कौरवी ) का सब से प्राचीन गद्य हैदराबाद दक्षिण वजहीका लिखा ' सबरस' है, जो कि उसी समय लिखा गया, जब कि तुलसीदासने “ रामचरित मानस " को लिखा । १७ वीं सदी से पहले का कोई हिन्दी गद्य नहीं मिलता । पद्य भी हिन्दी (कौरवी ) में पहले पहल दक्षिण में ही लिखा मिलता है । अपभ्रंश-काल के बाद १३ वीं सदी से १६ वीं सदी के अन्त तक के चार सौ वर्षों में कौरवी क्षेत्र की जैन प्रतिभाओंने अवश्य गद्य-पद्य के रूप में अपनी भाषा में लिखा होगा। सभी लिखी चीजों के सुरक्षित हमारे पास तक पहुंचने की सम्भावना तो नहीं है, पर कुरुभूमि के जैन मन्दिरों में उनमें से अब भी कितने ही हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं ।
श्री अगरचन्द नाहटाने राजस्थान के भण्डारों की जिस तरह लगन से छान-बीन की है, और जिसके फलस्वरूप सैंकड़ों नहीं, हजारों की तादाद में राजस्थानी ( और ग्वालेरी के भी) महत्वपूर्ण ग्रन्थो मिले हैं, उससे आशा होती है कि यदि कुरुभूमि के जैन - मन्दिरों की धूलि सिर पर लगाने के लिये कोई नाहटा तैयार हो जाये, तो वह हिन्दी की अनेक प्राचीनतम कृतियों का आविष्कार कर सकता है। इस भूमि के अनेक कुलपुत्र और कुलपुत्रियां साधु-साध्वियों के रूप में बराबर एक दूसरी जगह चारिका करते रहते हैं । यदि वे इस काम को अपने हाथ में लें तो बहुत कुछ कर सकते हैं ।