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श्रीमत् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ हिन्दी जैन यद्यपि पीछे उपयोग न रहने से उनकी सुरक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया जा सकता था, पर तो भी भूल-भटक कर भण्डारों में ऐसी पुस्तकों के बच रहने की सम्भावना है, और एकादि का पता भी लगा है।
आधुनिक भाषायें-अपनी-अपनी मातृभाषाओं में धर्म-ग्रंथों के पढ़ने की परिपाटी ब्राह्मणों के अत्यन्त रुढ़िवादी धर्म के विरोध के प्रस्तुत रहने पर भी चलती रही। तभी तो रामायण और महाभारत के नाना संस्करण भारत की आज की सभी भाषाओं में खूब प्रचलित हैं, और काव्य की दृष्टि से बहुत ऊंचा स्थान रखते हैं। जन-भाषा-समर्थक भारतीय धों में एक मात्र अवशिष्ट जैन-धर्म की इस ओर प्रवृत्ति बिलकुल स्वाभाविक ही है । पर यह काम वह उसी भाषा में कर सकता था जो कि किसी प्रदेश के जैनों की मातृभाषा हो । भारत में जैनों की मातृभाषा के रूप में दक्षिण की कन्नड़ और तमिल भाषायें हैं, और बाकी भारत में मराठी, गुजराती, राजस्थानी, ग्वालियरी (बुंदेली या व्रज ), कौरवी ( हिन्दी ) और पंजाबी । जैन वैसे सारे भारत में मिलते हैं, किन्तु उनके मूल स्थान उक्त भाषाओंवाले ही प्रदेश हैं । इन प्रदेशों में उनके अपने मन्दिर और उपाश्रय हैं । सौभाग्य से जैन ऐसे वर्ग हैं, जिन में शिक्षा का होना आवश्यक है । इस के कारण मन्दिरों और उपाश्रयों में पुस्तकों का संग्रह होना भी आवश्यक था। हमारे नगरों और कस्बों को अनेक बार युद्धों और उपद्रवों में आग और तलवार को देखना पड़ा, जिस के कारण जैन धर्मस्थानों में संगृहीत बहुत सी पुस्तकों का नाश हुआ, इसे कहने की आवश्यकता नहीं । तो भी उक्त भाषाभाषी क्षेत्रों में हजारों मन्दिर हैं। और एक-एक मन्दिर में सैकड़ों पुस्तकें सुरक्षित हैं, जिन में पर्याप्त हस्तलिखित हैं । जैसलमेर, पाटन के भण्डारोंने अपनी अनमोल निधियों को जब सामने रक्खा तो हमारी आंखें चौंधिया गईं। पर यह याद रखना चाहिये कि साधारण मन्दिरों में, तालपत्र नहीं कागज पर, कितनी ही महार्य पुस्तकें मिल सकती हैं।
आधुनिक भाषाओं की बड़ी सेवा जैन-धर्म ने की है, उसके महत्त्व को सभी मानते हैं । कन्नड़ भाषा के आरम्भिक तीन शताब्दियों के महान् कवि और साहित्यकार एक मात्र जैन थे, यद्यपि आज कर्नाटक में उनकी संख्या दाल में नमक के बराबर है । तामिल साहित्य की भी उनकी सेवायें अविस्मरणीय हैं। गुजराती-साहित्य और भाषा के सब से प्राचीन रूप हमें नहीं मिल सकते थे, यदि जैनोंने अपनी कृतियों में उसे सुरक्षित न रक्खा होता। राजस्थानी के साहित्य को तुलसी और कबीर के काल से भी पीछे ले जाना और उसे अपभ्रंश के काल से मिला देना जैन मनीषियों का ही काम है । ग्बालेरी (ब्रज-बुंदेली) तथा कौरवी के सम्बन्ध में अभी जैन पुस्तक भण्डारों की ओर ध्यान नहीं दिया गया है। ग्वालेरी के कुछ