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साहित्य
हिन्दी और हिन्दी जैन साहित्य । दुर्जन सजन होत नहिं राखो तीरथ वास । मेलो क्यों न कपूर में हींग न होय सुवास ॥ दुष्ट कही सुनि चुप रहो, बोलै है है हान । भाटा मारै कीच में, छींटे लागै आन ॥ (बुधजन सतसई ) जरै, मरे, फटै, परै, नव जीरनता वानि । जरै मरै नहिं जीव ये, दुःखी पराई हानि ॥ जो नरभव समकित गहै, ता महिमा सुरलोय ।
जो अजान विषयागमन, बृहे सागर सोय ॥ ( तत्त्वार्थवोध ) इनके पद्यों में रहीम और तुलसी की सी सहजता और स्वाभाविकता है । विशेष परिचय के लिये अनेकान्त वर्ष ११-६ अगस्त १९५२ देखिये ।
पं० सदासुखदास डेडका आप जयपुरनिवासी कासलीवाल दुलीचन्द के पुत्र थे । वीसवीं शताब्दी के प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकारों में आप भी विशेषतः विश्रुत थे । आप की अनेक गद्य-हिन्दी टीकायें प्रसिद्ध हैं। १ ' तत्त्वार्थसूत्रवचनिका', २ 'नाटक समयसार', ३ 'अकलंकाष्टकवचनिका', ४ ' रत्नकरण्डश्रावकाचार', ५ ' मृत्युमहोत्सव', और ६ 'नित्यनियम पूजा' प्रसिद्ध कृतियां एवं टीकायें हैं । आपका रचना-काल वि. सं. १९०६-२१ है। आप दिगम्बर तेरहपंथआम्नाय के अनुयायी थे। आप किसी राजकीय संस्था में मासिक वेतन रू० ८ या रू. १० पर कार्य करते थे और इस अल्प आय पर भी आप को पूर्ण संतोष था। आप अपना अवकाश शास्त्र-स्वाध्याय, तत्त्वचिन्तन एवं टीकादि करने में ही व्यतीत करते थे। आपके एक शिष्य पं० पारसदासजी निगोत्याने अपनी 'ज्ञानसूर्योदयनाटक ' की टीका में आपका जो परिचय दिया है, उससे आप की महानता, विद्वत्ता, समान-हितेच्छुकता का पूरा परिचय मिलता है। आप आधुनिक हिन्दी-काल के जैन विद्वानों में अग्रगण्य विद्वान् हुये हैं ।
विशेष परिचय के लिये श्री कामताप्रसादरचित ' हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास' और अनेकान्त वर्ष १० । ७-८ जनवरी-फरवरी १९५० देखिये ।।
योगीराज चिदानन्दजी यद्यपि आपको स्वर्गवासी हुये लगभग १०० वर्ष ही हुये हैं। परन्तु दुःख है इस संतवाणी के धनी योगीराज के व्यक्तिगत जीवन, कुल शिष्य-संतति के संबंध में अभी कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका है। आपकी रचनाओं में एक स्थल पर वि. सं. १९०५ उल्लिखित