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हिन्दी और हिन्दी जैन साहित्य | कविवर प्रमोदरुचिजी
आप का जन्म भिंडर (मेवाड़) में वि. सं. १८९६ के कार्तिक सु० ५ के दिन ब्राह्मणज्ञातीय शिवदत्तजी की धर्मपत्नी मेनाबाई से हुआ था । सं. १९१३ में भिंडर में ही अमररुचि नामके यतिजी के पास यतिदीक्षा ली। पश्चात् वि. सं. १९२५ के आ. व. १० के दिन जावरा में श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी म. के पास क्रियोद्धार कर दीक्षोपसंपत् ग्रहण की।
वि. सं. १९३८ के आ. कृ. चतुर्दशी के दिन बांगरोद में आप का स्वर्गवास हुआ । आप सुयोग्य कवि थे | आपने समय-समय पर विविध रचनाऐं की हैं, जो प्रायः सब 'प्रभु स्तवन सुधाकर' के द्वितीय भाग में मुद्रित हो चुकी हैं।
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आप की रचना का उदाहरण देखिये :
साहित्य
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उपशम रस जल रंग बनाऊँ, ज्ञान गुलाल अणाऊं । पंचमहाव्रत मित्र बुलाऊं, नव कोटी वाड़ी जुड़ाऊं ॥
दया पकवान मंगाऊं ॥ पृ. ४६२ उपशमरस जल अंग पखाले, संयम वस्त्र धराया रे । ध्यान शुक्ल मन ध्याया रे ॥ पृ. ४७४ उपशम कुंकुम अक्षत सरधा, मुक्ति फल लही बाला रे । रुचिप्रमोद वधावे गावे, पावे मंगलमाला रे ।। पृ. ४८९ सोहन सिंगार सजि अति सुन्दर, हाथ गही समता की थारी ॥
प्यारी ॥
भाव विशाल सगुण मुक्ताफल, लेह चली गुरुवंदन शील झांझर झंकार हुओ जब, भाग गई कुशोक
घुतारी ॥
' सूरिराजेन्द्र ' के पांव पडी तब, दूर भई दुरगति की वारी ॥ पृ. ४७८ एक बात को कई भांति से वर्णित करने की इनकी सरल सरस भाषा एवं पदों में रही भावभरी स्वाभाविकता इनके धर्मरस भीगे मानस का स्पष्ट परिचय कराती है ।
उपसंहार
जैन हिन्दी - साहित्य की विविधता के साथ उसकी दी गई विशेषतायें भी कम प्रकाशनीय नही हैं। एक बात जो पहिले कहनी है वह यही है कि जो प्राकृत में कहा गया था, अथवा लिखा गया था, वह ही अपभ्रंश में, वह ही संस्कृत में अवतरित हुआ और वह ही आधुनिक उपर वर्णित लोक भाषाओं में जैन विद्वान् आगम से बाहर पैर नहीं रखता, इस लिये नहीं कि उसका यह ही स्वभाव हो गया है अथवा अपने आगम का
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