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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ हिन्दी जैन मिलता है-इस पर ही आपका समय २० वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के भी प्रारंभिक वर्षों का माना जा सकता है । बीकानेर के एक स्वर्गवासी श्रीपूज्य से इतना अवश्य ज्ञात हो सका है कि आप खरतरगच्छीय थे । चिदानन्द इनका आध्यात्मिक साधना के समय पर धारण किया हुआ उपनाम है। तपागच्छीय मुनि कर्पूरविजयने आपकी समस्त प्राप्त कृतियों का संग्रह 'चिदानन्द सर्वसंग्रह ' नाम से प्रकाशित किया है। आपके पदों में माधुर्य, कान्त पदावली और प्रसादगुणसंयुक्त एक अविरल धारा बहती है। प्रकाशित 'चिदानंद सर्वसंग्रह' में 'स्वरोदय', 'पुद्गलगीता', 'बावनी', 'दयाछत्तीसी', ' प्रश्नोत्तररत्नमाला ', ' पद बहत्तरी',
और 'आध्यात्मवावनी' रचनायें हैं । आप आधुनिक हिन्दी-काल के जैन कवियों में आध्यात्मिक रचनाओं की दृष्टि से ऊंचा स्थान रखते हैं । आपकी रचनाओं का उदाहरण देखियेः
(राग-मल्हार )
ध्यानघटाघन छाये,
सु देखो भाइ ! ध्यानघटाघन छाये, ए आंकणी. दम दामिनी दमकति दहदिस अति, अनहद गरज सुनाये । सु० । १। मोटी मोटी बुंद गिरत वसुधा शुचि, प्रेम परम जर लाये । सु० । २। चिदानन्द चातक अति तलसत, शुद्ध सुधाजल पाये । सु०।३।
श्री चिदानंदजीकृत — सर्वसंग्रह ' पृ० ७३ विशेष परिचय के लिये देखिये 'सर्वसंग्रह' और वीरवाणी वर्ष २.-११ सन् १९४८.
कविवर ज्ञानानंद लगभग ७० वर्ष पूर्व आप के संयमतरंग' और 'ज्ञानविलास' दो पद-संग्रह 'यशविलास और विनयविलास' के पद-संग्रहों के साथ २ निकले थे । उसकी द्वितीयावृत्ति में (सं० १९७८ ) भीमसी माणेकने " ज्ञानविलास पं० ज्ञानसारकृत है " शब्दों द्वारा ज्ञानानंदजी को ही ज्ञानसार मान लिया था। और प्रेमीजी आदिने उसीके आधार से इन पदों के रचयिता के रूप में ज्ञानसारजी का परिचय दिया था; पर वास्तव में ये ज्ञानसार ही भिन्न थे । आप के पदों के अंत तथा मध्य चारित्रनंदी व ज्ञानानंद नाम प्रयुक्त हैं । खोज करने पर खरतरगच्छ के जिनराजसूरि (द्वितीय) की शाखा के चरित्रनंदि के कई ग्रंथ प्राप्त हुये हैं। बनारस में इनका उपाश्रय था। ज्ञानानंद उन्हीं के शिष्य थे । चारित्रनंदि की रचना सं० १८८९ सं० १९०३ तक की प्राप्त है । अतः ज्ञानानंदजी का समय भी इसी के आसपास है । आप के रचित कुछ पदों के संग्रह की प्रति संवत् १९१४ में लिखित प्राप्त होने से यह समय ही आप का मान्य है। देखो, जैन सत्यप्रकाश, वर्ष ४, अं. १२.