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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक - ग्रंथ
ए सब संदेशे लिख कागद, अनुभौ हाथ बचावै । ज्ञानसार एते पर नावत, तौ कहा रोय बतावै ॥ पृ० ५० ।
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हिन्दी जैन
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संतो घर में होत लड़ाई, कौन छुड़ावै आई । सं० । घरकी कहै मेरो घर नाहीं, पर कीया कहे मेरौ । मेरो मेरो कर कर मारथो, करथौ जगत को चेरो ॥ सं० । १ । सुरनर पंडित देखे सब ही, कौन छुड़ावै आई ।
झगड़ावाला आप ही समझे, बांध छोड़ उनमांहि ॥ सं० । २ । मिट गया फेरा, हुया सुरझेरा, आध्यात्म पद चीना ।
केवल कमलारस सब संगे, ज्ञानसार पद लीना ।। सं० । ३ । पृ० ६४,
सरल शब्दों में गूढ़ तत्र को रखदेना आप के लिये कितना सरल था । यह उपरोक्त पद्यांशों पर जाना जा सकता है । आप का आगमज्ञान गंभीर था । भाषा के आप बहुत बड़े मर्मदर्शी और तीव्र - आलोचक थे । आध्यात्मज्ञान का आप का स्तर जैन साहित्याकाश में निःसन्देह बहुत ऊपर उठा हुआ था । साहित्याकाश का यह ध्रुवतारा अनन्तकालपर्यंत निविड़ घोरमपूर्णा निशा में भवसागर की लहर-लहर पर प्रतिबिंबित रहेगा और मार्ग सुझाता रहेगा । छंद, चौपाई की समालोचना आप की अद्वितीय आलोचनात्मक रचना है । आप के दोहे आदि बड़े टकशाली हैं। आप की प्राप्य रचनायें संकलित की जा कर " ज्ञानसार ग्रंथावली' नास से मुद्रित हो चुकी है और शीघ्र ही प्रकाश में आनेवाली है । विशेष अथवा पूर्ण परिचय के लिये पाठक उक्त कृति को देखियेगा ।
कविवर बुधजन
आप जयपुर निवासी खण्डेलवालवंशीय बजगोत्रीय श्रेष्ठी निहालचंदजी के तृतीय पुत्र थे ! आप का रचना - काल वि. सं. १८५९ से १८८९ रहा है । वि. सं. १८५९ में आपने बुधजनविलास ' की रचना की । रचना - संवत् आपने ग्रंथ में इस प्रकार अंकित किया हैठारह सौ पंचास अधिक नव संवत जानो ।
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तीज शुक्ल बैशाख दाल षट् शुभ उपजानों ॥
वि. सं. १८७९ में आपने ' बुधजन सतसई' लिख कर समाप्त की तथा वि. सं. १८८९ में ' तत्त्वार्थबोध' नामक आपने तृतीय ग्रंथ लिखा । हिन्दी भाषा की दृष्टि से आपकी रचनायें प्रौढ़ हिन्दी में होती थीं। उदाहरण देखिये -