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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ हिन्दी जैन वह पक्ष करता है, लेकिन उसके आगम में अनुभवगत सत्य है और उसका कर्तव्य है कि जिस-जिस युग में जो-जो भाषा जन-साधारण अथवा साहित्य की बनती जाय वह उसउस भाषा में अपने पुनीत सिद्धान्तों को, संदेश और विचारों को उद्धरित करता रहे, पुस्तकारूढ़ करता रहे और उनका प्रचार करता रहे । हिन्दी जैन साहित्य का अनुशीलन ही हमारे उक्त कथन की प्रामाणिकता एक मात्र करा सकता है। उपर निबंध में हिन्दी जैन ग्रंथों की जो नामावली अथवा विशेष परिचय में उनके कर्ता के साथ जो उनका नामोल्लेख हुआ है, ग्रंथ-नाम से ही उनका आगम-अनुसारी होना प्रतीत होता है।
जैन साहित्य, हिन्दी अथवा किसी भी भाषा में हो, कभी आक्रमणकारी को उत्साह नहीं देता, शृंगारप्रिय लोगों की कामवासनाओं को उत्तेजित नहीं करता, एक जीव को दूसरे जीव से डराने का पाठ नहीं सिखाता, प्राणी को प्राणी के प्रति घृणा और जुगुप्सा की ओर आकृष्ट नहीं करता, धनसंचय और वैभव-रक्षा को अभिप्रेत नहीं बताता, हिंसक प्रवृत्तियों को नहीं उभारता । यह सिखाता है प्राणी-प्राणी में प्रेम करना, त्याग-भावना रखना, वैभव और ऐश से दूर रहना, अपरिग्रही बनना, अहिंसा का सर्व स्थितियों में प्राण-प्रण से पालन करना । संक्षेप में कह दें वह आत्म-प्रतीति सिखाता है, आत्मदर्शन का मार्ग बताता है, पुरुष को पुरुषार्थ सिखाता है, पुरुष स्वयं को अपने भाग्य का निर्माता बताता है। वह ईश्वर पर पुरुष को आश्रित नहीं होने देता । वह कहता है-जैसा करोगे वैसा भरोगे। आत्मा अनन्त वीर्यशाली है, अनंत ज्ञानी है, उसको समझो और अपने कर्मों की निर्झरा करो। आत्मा परमात्मा बन सकती है। सर्व जीवों में आत्मा समान है । प्राणी मात्र पर दया करो। वनस्पति तक में और पृथ्वी, वायु, अप, तेज में भी जीवात्मा है । व्यर्थ किसी को नहीं सताओ। तुम सब से किसी-न-किसी अपेक्षा से संबंधित हो। यह है जैन स्याद्वाद, अनेकान्तमत, जिस पर जैन धर्म और उसके साहित्य की नींव गहरी लगी हुई है।
जैन धर्म की शिक्षायें शान्ति की पोषक हैं, शान्ति की ही स्थापना करनेवाली हैं, शान्ति का पाठ पढ़ानेवाली हैं। वह हिंसक-क्रान्ति और संहार का विरोध करनेवाला है। अतः हिन्दी जैन साहित्य जो इतना सरस है, उसकी सरसता का, उसकी उपादेयता का, उसकी लोकहितकारिणी स्थिति का एक मात्र कारण है कि वहाँ उसमें शान्त-रस की ही सदा बहनेवाली गंगा प्रवाहित रहती है। अस्थिर मनोवेगों, अनुमान और चंचल कल्पनाओं पर पल-पल में बदलनेवाले अस्थिर रसों का वहाँ प्रभाव ही नहीं जमता और वह नहीं-सा ही मिलेगा।
उपरोक्त कथन से यह तात्पर्य नहीं लेना चाहिए कि जैन हिन्दी साहित्य में एक शान्त-रस का ही भाव है और अन्य रसों का अभाव । जैन हिन्दी-विद्वानों ने जो कथा,