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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-भारक-प्रय हिन्दी जैन धीरे २ आप आगरा के नामाङ्कित विद्वानों में गिने जाने लगे। वि. सं. १७५२ में आपने 'सुबोधपंचासिका' नाम की कविता लिख कर पूर्ण की। आप को आध्यात्म रस से बड़ा प्रेम था । आपकी रचनाओं में आध्यात्म-ज्ञान बहुत ही ऊंचे स्तर पर है । ' आगमविलास' नाम के संग्रह-ग्रंथ में १५२ सवैया हैं, जिन में सैद्धान्तिक विषयों का वर्णन है। अन्य छोटी-छोटी ५२ रचनायें और हैं। प्रतिमाबहत्तरी, विद्युत् चोरकथा, सनत्कुमार कथा आदि । इनके अतिरिक्त ऊंकारादिक ५२ और ६४ वर्ण, द्वादशाङ्ग, ज्ञान-पच्चीसी, जिनपूजनाष्टक, गणधर आरती, कालाष्टक, ४६ गुण जैमाला आदि ४५ विषयक रचनायें इस संग्रह में आपकी रचनाओं में संकलित हैं । भावगाम्भीर्य और सारल्य देखिये:
साधो ! छांगे विषय विकारी, जातैतोहि महादुखभारी । जो जैनधर्म को ध्यावै, सो आत्मीक सुख पावै ॥ १॥ जौ तजै विषय की आसा, द्यानत पावै शिववासा ।
यह सतगुरु सीख बताई, काहू विरले जिय आई ॥८॥ विशेष परिचय के लिये देखिये अनेकान्त वर्ष ११ । ४-५ जून-जुलाई १९५२ ।
कविवर भूधरदास आप आगरा के निवासी थे और ज्ञाति से खण्डेलवाल थे । आप अच्छे कवि थे और आपकी सरस कविताओं से लोग बड़े मुग्ध होते थे। मित्रों के अत्याग्रह से आपने वि. सं. १७८१ पौष कृष्ण १३ को आपने 'जैनशतक' नाम ग्रंथ लिखकर समाप्त किया। आप की अभीतक साहित्य-संसार के परिचय में तीन कृतियां आई हैं
___ जिनशतक, ' ' पदसंग्रह ' और ' पार्श्वपुराण' । कविवर भूधरदास ऊच्च कोटि के सूक्तियों के लिये भी अधिक प्रसिद्ध हैं। आप के ' पदसंग्रह ' नामक संग्रह में विविध पद हैं जो सरस, रोचक और अति शिक्षाप्रद हैं। आप की रचनाओं के उदाहरण देखिये
नया चरखला रंगा चंगा सब का चित्त चुरावै । पलटा वरन गये गुन अगले, अब देखे नहिं आवै ।। मोटा महीं कात कर भाई, कर अपना सुरझेरा । अंत आगमें इंधन होगा, भूधर समझ सबेरा ॥
x तेज तुरंग, सुरंग भले स्थ, मत्त मतंग उतंग खरे ही। दास, खबास, अवास अटा, धन जोर करोरन कोश भरे ही ॥