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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ
सयन की नयन की बयन की छबी नीकी, मयन की गोरी तकी लगी मोहि अवियां ( १ ) मन की लगनी भर अगनीसी लागे अली ! कल न परत कछु कहाँ कहुँ बतिया । स० १ । पृ० १३९ होरी गीत
हिन्दी जैन
अयसो दाव मील्योरी, लाल कयुं न खेलत होरी । मानव जनम अमोल जगत में, सो बहु पुण्ये लह्योरी ॥ अब तो धार (खेल) अध्यात्म शैली ( होली ), आयु घटत थोरी थोरी ॥ वृथा नित विषय ठगोरी । अयसो० १
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समता सुरंग सुरुचि पिचकारी, ज्ञान गुलाल सजोरी । जटपट कुमति कुलटा ग्रही, हलीमली शिथिल करोरी ||
सदा घट फाग रचोरी । अयसो० २ शम दम साज बजाय सुघट नर, प्रभु गुन गाय नचोरी | सुजस गुलाल सुगंध पसारो, निर्गुण ध्यान धरोरी ॥ कहा अलमस्त परोरी । अयसो० ३ । पृ. १७७.
उपाध्यायजी का अध्यात्मज्ञान बहुत ही ऊंचा था । उसको उन्होंने संभोग - शृंगार में से ले जा कर कैसा ऊपर उठाया है । उपाध्यायजी का अनुभव व्यापक और गंभीर था । उनकी रचनायें साधारण जीवन को अधिक स्पर्श करनेवाली हैं । सीधे साधे शब्दों में परिचित वस्तु को साधन रूप बना कर गूढ़ तत्त्व की बात कहना उनके लिये अति सरल था । होरी - गीत से उन्होंने किस सीधे ढ़ंग से एक महान् आध्यात्मिक भाव को जन-साधारण के समझने योग्य सुगम बना दिया है ।
विशेष परिचय के लिये ' गूर्जर साहित्य संग्रह प्रथम विभाग' को देखिये |
भैया भगवतीदासजी
आप अठारहवीं शताब्दी के नामांकित कवि हो गये हैं। आगरानिवासी प्रसिद्ध व्यापारी ओसवालज्ञातीय कटारियागोत्रीय श्रेष्ठी लालजी के आप पुत्र थे । आपने सहस्राधिक पद्य लिखे हैं । ' ब्रह्मविलास ' नामक आपकी कविताओं का संग्रह है । ' पुण्यपच्चीसिका', ' शतअष्टोत्तरी, पञ्चेन्द्रियसंवाद, कुपथ - सुपथ - पचीसिका', 'ईश्वरनिर्णय - पच्चीसी, ' परमार्थ-प -पद- पंक्ति, ' 'मन बत्रीसी', 'चेतन कर्म - चरित्र', • अनित्य - पंचविंशतिका' आदि
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