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साहित्य
हिन्दी और हिन्दी जैन साहित्य |
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अब हम अमर भये न मरेंगे ।
या कारण मिध्यात दियो तज, क्यूं कर देह धरेंगे । राग-दोस जगबंध करत हैं, इनको नास करेंगे | मयो अनंत कालतें प्राणी सो हम काल हरेंगे । देह विनासी हूं अविनासी अपनी गति पकरेंगे || मर्यो अनंत बार बिन समज्यो, अब सुख-दुःख बिसरेंगे । आनंदघन निपट निकट अच्छर हो, नहिं समरे सो मरेंगे || बहोत्तरी ||
आनंदघन चौवीसी और बहोत्तरी की एक-एक रचना अनूठी है। उनमें सूर-सा मजा और तुलसी - सा पाण्डित्य है । हिन्दी जैन साहित्याकाश में आनंदघन सूर्य के समान भासित है । स्थानाभाव से यहां अधिक कहने को तो हम स्वतंत्र नहीं और थोड़ा कहने से कलम को संतोष नहीं । इस द्विधा में हम पड़ कर इतना ही हम कहना चाहते हैं कि आनंदघन की भाषा सरल, पर भाव गंभीर हैं; उनका हृदय सरल, पर ज्ञानगंभीर है और उनका मस्तिष्क सरल, पर तत्त्व गंभीर है। आनंदघन को समझने के लिये चरम चक्षु अपेक्षित नहीं, वरन् अन्तरदृष्टि चाहिए |
विशेष परिचय के लिये ' घन आनंद' और 'आनंदघन' नामक पुस्तक पढ़िये । उपाध्याय यशोविजयजी
आप विक्रमी १७ - १८ शताब्दी के विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ कवि और ग्रन्थकार I संस्कृत, प्राकृत और गूर्जर तथा हिन्दी चारों भाषाओं के आप प्रकाण्ड पण्डित थे । आपके विषय में किंवदन्ती प्रसिद्ध है कि आपने लगभग ५०० ग्रन्थों की रचना की है । लगभग १०० ग्रन्थों की रचना करने की बात तो प्राय सभी जैन विद्वानोंने मान- सी ली है। आपका जन्म वि.सं. १६८० के लगभग हुआ बताया जाता है । वि. सं. १७४३ में स्वर्गवास हुआ।
आपने ' अध्यात्ममतपरीक्षा' स्वोपज्ञटीकासहित श्लोक ४००० प्रमाण, 'अष्टसहस्री. विवरण ' श्लोक ७५५० प्रमाण, कर्मप्रकृति टीका ' श्लोक १३००० प्रमाण, द्वात्रिंशत द्वात्रिंशिका ' श्लो० ५५५० प्रमाण, 'वीरस्तव स्वोपज्ञटीकासहित लो० १२००० प्रमाण, ' प्रतिमाशतक ' स्वोपज्ञटीकासहित श्लो० ६००० प्रमाण, 'वैराग्यकल्पलता ' श्लो० ६७५० प्रमाण, ' स्याद्वादकल्पलता ' श्लो० १३००० प्रमाण प्रभृति अनेक बड़े २ ग्रंथ संस्कृत, प्राकृत, गूर्जर में रचे हैं । हिन्दी पर भी आपका असाधारण अधिकार था जो निम्न उदाहरणों से स्पष्ट है । ( गूर्जर साहित्य संग्रह से )
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