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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक - ग्रंथ
हिन्दी जैन
की हैं और अपभ्रंश प्रभावित प्राप्त हिन्दी जैन दि० साहित्य में हिन्दी का निखरा हुआ रूप १६ वीं शती के उत्तरार्द्ध की रचनाओं में देखने को मिलता है ।
विक्रमीय १४ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ' हिन्दी ' ' अपभ्रंश ' के प्रभाव से मुक्त बनने लगती है जो १६वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अपभ्रंशमुक्त हो कर स्वतंत्र भाषा के रूप में परिणित हो जाती है। इस उपकाल में उल्लेखनीय हिन्दी जैन कवि अपभ्रंशरहित हिन्दी धर्मसूरि, धेल्ह, विनयप्रभसूरि, अम्बदेव, दयासागरसूरि और संवेगसुन्दर हैं । धर्मसूरिने 'जम्बूस्वामीरास, ' घेल्हने वि. सं. १३७१ वें ' चउबीसी गीत', विनयप्रभने वि. सं. १४१२ में ' गौतमरासा', अम्बदेवने ' संघपतिसमरारास, ' दयासागरने वि. सं. १४८६ में ' धर्मदत्तचरित्र' और संवेगसुन्दरने सं. १५४८ में ' सारसिखामणरास ' की हिन्दी - रचनायें की हैं। उदाहरण देखिये :
जंबूदीवि सिरिमरहखित्ति तिहिं नयर पहाणउ । राजगृहनामेण नयर पहुवी वक्खाणउ । राज करह सेणिय नरिंद नर वरहं जु सारो । तासु तह (अति) बुद्धिवंत मति अभयकुमारो ||
बनारसीविलास ( धर्मसूरिकृत 'जम्बूस्वामीरास ' ) नाभि नरिंदु नरेसरू मरूदेवी सुकलत्ता । तसु उरि रिस उवष्णो अवध वदाहि कंता ||
बनारसीविलास (घेरहकृत ' चउबीसी गीत ' ) नयण वयण कर चरणि जिण वि पङ्कज जलि पाडिय । तेजिहि तारा चंद सूर आकासि भयाडिय ||
दि० जै० सा० का सं० इति ( विनयप्रभकृत ' गौतमरासा ' ) उपर अबतक जो हमने लिखा है उसका सार इतना ही है कि ' प्राकृत' से अपभ्रंश भाषा का उद्भव हुआ और 'अपभ्रंश' से आधुनिक बोलियों का निर्माण हुआ । हिन्दी भी आधुनिक बोलियों में एक बोली है । हिन्दी का उद्भव ' अपभ्रंश ' से है अपभ्रंश की देन और हिन्दी का विकास ' अपभ्रंश ' में ही हुआ है । इस पर हमने स्थान और समय का ध्यान रखते हुये भी अधिक कह दिया है । ' हिन्दी ' में हम अनेक भाषाओं के शब्द देखते हैं; परन्तु इस पर वह अन्य भाषा से संभूत हुई - नहीं मानी जा सकती । देशी भाषाओं की समस्त क्रियायें एवं धातु रूप प्राकृतसंभूत अपभ्रंश मैले हैं। इतना ही नहीं, हिन्दी को तो अपभ्रंश से कई वरदान व अमूल्य देन प्राप्त हुई हैं।