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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ हिन्दी जैन बन चुके थे । कभी २ तलवार भी चमक उठती थी; परन्तु वह किसी-किसी और अमुक स्थल में ही। मुस्लिम शासकों ने यवन-राज्यों की स्थापना करके ही विश्राम लेना नहीं सोचा था। अब वे बल-प्रयोग से यहां के निवासियों को मुसलमान बनाने पर तुल उठे थे । राजाजन तो अबल हो चुके थे और प्रजा भी सर्व प्रकार असहाय थी । ऐसी धर्म-संकट स्थिति में ईश्वर के भक्त ईश्वर की उपासना के सिवाय और क्या कर सकते थे और हमारे स्याद्वाद के विद्वान् आत्मधर्म और मानवोचित व्यवहार का उपदेश देने के अतिरिक्त और कर ही क्या सकते थे। जैनेतर संत और भक्तों का एक समुदाय निकला जिसमें नामदेव, रामानंद, रैदास, कबीर, धर्मदास, नानक, शेखफरीद, मलकदास, दादुदयाल और सुन्दरदास के नाम उल्लेखनीय हैं। मुसलमानों के भीतर से भी एक दल निकला जिसने प्रेम-पंथ का प्रचार किया। प्रेम-पंथ 'सूफी मत' के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। जैन विद्वान् साधु और आचार्यों ने अपने तत्त्वपूर्ण व्याख्यान दिये । सर्वत्र भारत में उन्हों ने विहार कर के मानव-धर्म को समझाया; यवन-राजाओं की राज्य-परिषदों में, बादशाहों के हजूरगाह में जाकर उन्होंने धर्म-सहिष्णुता
और अभयदान के महत्व समझाये । जो संत-साहित्य, भक्त-काव्य, धर्म-संगीत इनकी वाणी से, कलम से, सितार से निकला उसने धर्म-संकट को टालने में पूरी २ सफलता प्राप्त की । हिन्दी-साहित्य के विकास के इतिहास को लिखनेवालों ने अनेक जैनेतर भक्त, संत, और सूफी मत के प्रेमपंथियों का नामोल्लेख किया और उनका पूर्ण परिचय देने की उदारता बतलाई है । परन्तु इनके ही साथी जैन धर्मात्मा-पुरुषों में से, जिनके नाम दो या दस नहीं, सैकडों उपलब्ध हैं उनमें से, एक बनारसीदास का नाम केवल उल्लिखित किया । तिस पर हिन्दी जैन साहित्य में तो अतिरिक्त संत अथवा भक्त या धार्मिक साहित्य के अन्य प्रायः सभी विषयों में भी रचनायें हुई हैं। इन शताब्दियों में जैनेतर साहित्य जहां केवल संत-साहित्य के रूप में ही मिलता है, वहां जैन हिन्दी साहित्य में वह विविध विषयक और विविधमुखी है। जैनेतर विद्वानों का यह असमभावप्रधान दृष्टिकोण एवं संकुचित वृत्त अवश्य आलोच्य है । ऐसा करके वे सज्जन हिन्दी भाषा के विकास को हमारे समक्ष पूरा २ उपस्थित करने में असफल भी रहे और भ्रमित भी हो गये। उपर हिन्दी जैन-विद्वानों के हमने कुछ नाम दिये हैं। उनमें दि० कवियों की
रचनाएं तो प्रसिद्ध हैं। श्वे० कवि अप्रसिद्ध होने से उनकी यहां रचनाओं कुछ प्रचूर्ण कवि की नामावलि दे रहे हैं। विविध विषयक रचनाओं के साथ यथासंभव उनके और लेखक रचना काल-संवतों के उल्लेख निम्नवत् कर देना ठीक समझते हैं।
श्रावक कवि नैनसुखने वि. सं. १६४९ में ' वैद्यमनोत्सव ' लिखा। . .