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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-मंथ हिन्दी जैन कुक्षी से पांचवां पुत्र के रूप में रूपचंद नाम से हुआ था । कविवर बनारसीदासजी आप के बड़े ही श्रद्धालु व्यक्तियों में थे और वे आप के गंभीर ज्ञान से बड़े ही प्रभावित थे । पाण्डेजीने 'रूपचन्द्र', 'पचमंगल पाठ', 'नेमिनाथ-रास' और अनेक अन्य पदों की हिन्दी में रचना की है। 'समवसरणपाठ ' आप की संस्कृत भाषा की कृति बतलायी जाती है। आप की रचनायें अत्यन्त भावपूर्ण और हृत्तलस्पर्शी हैं । उदाहरण देखिये
पर की संगति तुम गए, खोई अपनी जाति ।। आपा-पद न पिछानहूं, रहे प्रमादिनी माति ॥ ४२ ॥ पर संजोगत बंध है, पर वियोगत मोख । चेतन पर के मिलन में, लागत हैं बहु दोष ॥ ४६॥ चैतनसौं परचै नहीं, कहा भये व्रतधारि । सालि विहूने खेत की, वृथा बनावत वारि ॥ ८६ ॥
रूपचन्द्र-शतक। विशेष परिचय के लिये अनेकान्त वर्ष १०/२ अगस्त १९४९ देखिये ।
___ कविवर बनारसीदास __ आप का जीवन विविध बातों एवं आश्चयों का कोश है । आप तीन बार विवाहित हुये और नव पुत्रों के पिता बने; परन्तु, एक-एक कर के नौही पुत्र महाकाल की भेंट हुये। बचपन में आप नटखट थे । युवानी में रसिक । पाण्डे रूपचंद का आपके रसिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा । प्रथम आपने शृंगार-रस में कवितायें लिखीं; परन्तु पश्चात् आपने अपनी समस्त श्रृंगार रस की रचनाओं को गौमती में जल-शरण कर दी । शृंगारोन्मुख हो कर आप शान्तरस की ओर बढ़े और अध्यात्मस्थल पर अपने वह शान्तरस प्रवाहिनी गौमती उद्गमित की जो हिन्दी जैन साहित्य में आनंदघनगंगा और ज्ञानसार--यमुना से मिलकर त्रिवेणी तीर्थ की रचना को पूर्ण कर गई । हिन्दी जैन साहित्य में आनंदघन उच्च अध्यात्मानुभव के नाते 'सूर' हैं आप 'चंद्र' है और ज्ञानसार 'ध्रुवतारा' । आप की रचना का उदाहरण देखियेः
ज्यों सुवास फल-फूल में, दही-दध में घीव । पावक काट-पाषाण में, त्यों शरीर में जीव ॥ (ब० विलास ) सम्यक् सत्य अमोघ सत निःसन्देह विन धार ।
ठीक यथातथ उचित तथ मिथ्या आदि अकार ॥ ( नाममाला ) 'समयसार', 'अर्धकथानक ', 'बनारसी-विलास' और 'नाममाला ' आपके ये