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तीर्थ-मंदिर
तीर्थक्षेत्र श्रीलक्ष्मणीजी । लक्खातिय सहस विपण सय, पण सहस्स सग सया, सय इगविसं दुसहसि सयल, दुन्नि सहस कणय मया । गाम गामि भक्ति परायण, धम्माधम्म सुजाणगा,
मुणि जयाणंद निरक्खिया, सबल समणोवासगा ॥२॥ मंडपाचल में ७०० जिनमन्दिर एवं तीन लाख जनों के घर, तारापुर में ५ मन्दिर ५००० श्रावकों के घर, तारणपुर में २१ मंदिर ७०० जैनधर्मावलम्बीयों के घर, नान्दूरी में १२ मन्दिर २१०० श्रावकों के घर, हस्तिनीपत्तन में ७ मंदिर २००० श्रावकों के घर और लक्ष्मणी में १०१ जिनालय एवं २००० जैनधर्मानुयायिओं के घर धन, धान्य से संपन्न, धर्म का मर्म समझनेवाले एवं भक्तिपरायण देखें, आत्मा में प्रसन्नता हुई । लक्ष्मणी, लक्ष्मणपुर, लक्ष्मणीपुर आदि इस तीर्थ के नाम हैं जो यहां पर अस्तव्यस्त पड़े पत्थरों से जाना जाता है। लक्ष्मणी का पुनरुद्धार एवं प्रसिद्धि
पूर्वलिखित पत्रों से विदित है कि यहां पर भिलाले के खेत में से १४ प्रतिमाएं भूनिर्गत हुई तथा आलिराजपुरनरेशने उन प्रतिमाओं को तत्रस्थ श्री जैन श्वेताम्बर संघ को अर्पित की । श्रीसंघ का विचार था कि ये प्रतिमाजी आलिराजपुर लाई जावें, परन्तु नरेश के अभिप्राय से वहीं मंदिर बंधवा कर मूर्तियों को स्थापित करने का विचार किया, जिससे उस स्थान का ऐतिहासिक महत्त्व प्रसिद्धि में आवे ।
___ उस समय श्रीमदुपाध्यायजी श्रीयतीन्द्रविजयजी महाराज (वर्तमान आचार्यश्री ) वहां बिराज रहे थे । आप के सदुपदेश से नरेशने लक्ष्मणी के लिये ( मन्दिर, कुआं, बगीचा, खेत आदि के निमित्त ) पूर्व-पश्चिम ५११ फीट, उत्तर-दक्षिण ६११ फीट भूमि श्रीसंघ को अमूल्य भेट दी और आजीवन पर्यंत मन्दिर खर्च के लिये ७१) रू० प्रतिवर्ष देते रहना और स्वीकृत किया। ___महाराजश्री का सदुपदेश, नरेश की प्रभुभक्ति एवं श्रीसंघ का उत्साह-इस प्रकार के भावना-त्रिवेणीसंगम से कुछ ही दिनों में भव्य त्रिशिखरी प्रासाद बन कर तैयार हो गया । आलिराजपुर, कुक्षी, बाग, टांडा आदि आसपास गांवों के सद्गृहस्थों ने भी लक्ष्मी का सद्व्यय कर के विशाल धर्मशाला, उपाश्रय, ऑफिस, कुआं, वावड़ी आदि बनवाये एवं वहां की सुंदरता विशेष विकसित करने के लिये एक बगीचा भी बनाया गया जिस में गुलाब, मोगरा, चमेली, आम अदि के पेड़ लगाये गये ।
जो एक समय अज्ञात तीर्थस्थल था वह पुनः उद्धरित हो जानता में प्रसिद्ध हुआ।