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भीम विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-पथ ललितकला और शिवी कहलाता था, जिसकी राजधानी माध्यमिका थी। अलवर आदि क्षेत्र मेवात में थे जिसको उत्तरीय कुरु भी कहा जाता था। प्राग्वाट के कुछ क्षेत्र गुजरात में भी थे और एक तरह गुजरात व राजस्थान बहुत कुछ मिलेजुले थे । उपर्युक्त राणस्थान के निर्माण में भी जैन संस्कृति का महत्वपूर्ण हाथ था। शासन और राजनैतिक क्षेत्रों को देखें, साहित्य के क्षेत्र को देखें अथवा शिल्प-स्थापत्य आदि क्षेत्र को तो राजस्थान के सर्वांगीण विकास और निर्माण में जैन क्षत्रिय शासकों, वैश्य महामात्यों, अमात्यों, मंत्रियों, दण्ड-नायकों और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि में से जैनधर्म स्वीकार कर दीक्षा-संस्कार ग्रहण करनेवाले श्रमण, साधु, यति, साध्वीवर्ग का उस बारे में बहुत उज्ज्वल, गौरवमय हाथ रहा है। आततायियों से संघर्ष करने में, कला और साहित्य के सृजन, संरक्षण और प्रोत्साहन में, अकाल आदि से उत्पन्न संकटकाल के समय तन-मन-धन से राहत व सेवा कार्य में, कूटनीतिक और राजनैतिक संबंधों के बनाने-बिगाड़ने में, इस प्रकार समग्र मानवीय, सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन में जैनियों का हाथ रहा था। हरिभद्रसूरि, रत्नप्रभसूरि, जिनदत्तसूरि, हेमचन्द्राचार्य, बप्पभट्टसूरि, संप्रति, कुमारपाल, वस्तुपाल तेजपाल, धरणाशाह, ठक्कर फेरू, भामाशाह आदि इसके ज्वलंत उदाहरण हैं । जैन आचार्य और साधुओंने राजाओं सहित समग्र जनता को धर्मोपदेश दिया था। कई गच्छपति अनेक क्षत्रिय वंशों के कुल-गुरु थे और शासन को जनहितकारी व धर्मपरायण बनाने में इनका बड़ा हाथ रहा था। तीर्थों और मन्दिरों की प्रतिष्ठापना के लिये भी यह लोग प्रेरक शक्ति थे ।
___ अन्य धर्मों और संस्कृतियों की भांति जैन धर्म व संस्कृति के भी अनेक तीर्थ और मन्दिर ही उसके आधारभूत और प्रेरक प्रतीक हैं। राजस्थान के जैन मन्दिर भी जैन संस्कृति के उत्कर्ष, प्रकर्ष और जैन धर्मानुयायियों की धर्म-श्रद्धा, उदात्त पवित्र भावना, दानशीलता, वैभवशालीता आदि के प्रतीक हैं । इन मन्दिरों के निर्माण में धर्म-गुरुओं व धर्माचार्यों की प्रेरणा तो मुख्य रही ही है, साथ ही गृहस्थ या श्रावक की सच्ची धर्म-श्रद्धा-भक्ति-भावना, कलाप्रियता का भी उसमें बहुत बड़ा स्थान है । अकाल या ऐसे अवसरों पर पीड़ित जनता को सहायता पहुंचाने की भावना भी कभी २ रही होगी। अपने वैभव व सत्ता के प्रदर्शन की भावना का कितना हाथ रहा यह कहना कठिन है, किन्तु पिछले पांच-सात शताब्दियों में मूर्तियों व मन्दिरों के लेखों में जिस प्रकार व्यक्ति के नाम, वंश आदि की प्रशस्ति के आलेखन का क्रम चला है उससे यह ईन्कार सर्वथा नहीं किया जा सकता है कि वैभव व सत्ता के प्रदर्शन का लोभ इन कला-कृतियों के निर्माण में कार्य नहीं कर रहा था। कलाकार, जिसकी मात्म-विस्मृति या तल्लीनता, आंख-हाथ-अंगुलियां आदि की एकाग्रता, तन्मयता और