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तीर्थ-मंदिर
राजस्थान के जैन मन्दिर । साधनाने धर्म व संस्कृति की प्रतीक इस सौन्दर्य-सृष्टि का निर्माण किया उसकी नामावली या वंशावली की प्रशस्ति का अभाव या उसका कहीं कहीं पर प्रसंगोपात उल्लेख मात्र भी उपर्युक्त बात की संपुष्टि करता है । लेकिन यह बात जैन मूर्तियों, लेखों, कलास्थानों पर ही नहीं, अन्य कला-कृतियों, स्थापत्य व शिल्प के गौरवशाली गिने जानेवाले स्थानों आदि के संबंध में भी लागू है । जैन धर्म या श्रमण-संस्कृति का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है और उसकी प्राप्ति के लिये सादे जीवन, कठोर तपश्चर्या, धर्माचरण, संयम-साधना, मूर्ति-पूजा, भक्तिउपासना और मन्दिर आदि की श्रद्धा के द्वारा कर्म-क्षय का ही मार्ग बताया गया है। यह जहां एक ओर देश में चारों तरफ फैले वैष्णव, शैव, तांत्रिक आदि की भक्ति व उपासना पद्धति के प्रभाव का परिणाम है वहां दूसरी ओर यह भी बतलाता है कि जैन धर्म और संस्कृति समाज के प्रति उदासीन नहीं रही है । एक लेखक के शब्दों में इसी लिये “ मन्दिर
आध्यात्मिक स्थान होते हुये भी कलाकारोंने अपने मानसिक भावों द्वारा उसे ऐसा अलंकृत किया कि साधक आंतरिक सौन्दर्य की उपासना के साथ बाहरी पृथ्वीगत सौन्दर्य नैतिक
और पारस्परिक अन्तश्चेतना जगानेवाले उपकरणों के द्वारा वीतरागत्व की ओर बढ़ सके।" फिर भी यह विचारणीय है कि जैन मन्दिरों में भी जो आडम्बर, शृंगार, चमत्कार प्रदर्शित करने व फल-परचे देने की प्रवृत्ति बढ़ रही है वह जैन दर्शन और धर्म भावना के कितनी अनुकूल व कितनी प्रतिकूल है । अस्तु ।
जो भी हो राजस्थान के जैन मन्दिर अपनी उत्कृष्टतम स्थापत्य, शिल्पकला, वैभव व समृद्धिपूर्ण भूमिका, शान्त व पवित्र भावनाओं को जगानेवाले अपने अन्तर्वाह्य वातावरण, ग्रंथसाहित्य आदि के संरक्षण और साधना के केन्द्रस्थान होने के कारण भारत की संस्कृति के इतिहास में अद्वितीय स्थान रखते हैं। उन मन्दिरों की गणना कराना तो यहां कठिन है, पर उनके कुछ संक्षिप्त उल्लेख की जरूर आवश्यकता है । इन मन्दिरों में अधिकांश क्या, लगभग सभी ही जगह उत्तर भारत में प्रचलित रही आर्य या नागर शैली की स्थापत्य व शिल्पकला है । कहीं-कहीं दक्षिण की द्राविड शैली का भी मिश्रण है । कला-पूर्ण, वढिया खुदाई, कुराई और जडाई से अलंकृत तोरणद्वार, शिखर, गुम्बज, ध्वज, आदि की विशेषता बाहर से ही बतला सकती है कि यह जैन मन्दिर है। मूलनायक की मूर्तियां अधिकांश बढिया सफेद पत्थर की है । कई जगह काले, लाल व पीले पत्थर की और बालुका की भी मूर्तियां हैं और सोने, चान्दी, ताम्बे आदि धातुओं तथा हीरा, पन्ना, स्फटिक आदि मूल्यवान पत्थर या जवाहिरातों की भी छोटी मूर्तियां हैं। मूर्तियों के लिये पीतल, कांसा, शीशा आदि व मिश्र धातुएं ठीक नहीं मानी जातीं, पर कई मन्दिरों में पीतल की बड़ी-छोटो मूर्तियां भारी