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भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ ललितकला और संख्या में हैं । मूर्तियां अधिकांश पद्मासनस्थित हैं, लेकिन कई जगह अर्द्ध पद्मासन और खड़ी कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित मूर्तियां भी हैं। मन्दिरों के अन्दर के विभिन्न भाग, द्वार-मंडप, शृंगार-चौकी, गूढ-मंडप, गर्भगृह आदि अत्यधिक कलापूर्ण और भाव-चित्रादि से अलंकृत बने हुये हैं। मूलवेदी के बाहर के सभामंडप की छत में कहीं-कहीं तो एक जीवित सात्विक सौन्दर्यसृष्टि, पुष्पावली-वल्लरी आदि के समूह और वाद्य-यंत्र धारण की हुई तथा नृत्य मुद्रा में स्थित पुत्तलिकाओं द्वारा करदी गई है जिसे देख कर इस देश के ही नहीं, विदेश व दूर-दूर के कलाविद् भी मंत्रमुग्ध रह जाते हैं । मूल मन्दिरों में तीर्थंकरों की ही मूर्तियां रहती हैं, लेकिन बाहर और प्रकोष्ठ में अम्बिका, चक्रेश्वरी, सरस्वती, क्षेत्रपाल, भैरव व भोमियों की मूर्तियां मन्दिर के बाहर, भीतर स्थापित की जाने लगी और पूजी जाने लगीं। राणकपुर आदि कुछ एक मन्दिरों के द्वार-स्तम्भों, शिखर-मंडप आदि में नग्न स्त्री-पुरुषों की मूर्तियां या तक्षण-कृतियां भी हैं वह भी इस प्रभाव का परिणाम ही दीखता है। इस प्रकार की कारीगरी का कुछ लोग जीवन के समग्र दर्शन व चित्रण की दृष्टि से औचित्य मानते हैं पर यह तर्क समाजहित की दृष्टि से उपयोगी व उचित नहीं माना जा सकता।
जैन तीर्थों, मन्दिरों और विशेषतः स्थापत्य व शिल्पकला की उत्कृष्टता की दृष्टि से तथा ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए चित्रकूट (चितौड ), जावालिपुर ( जालोर ), जैसलमेर, नागौर, राणकपुर, अर्बुदाचल (कुंभारिया, जीरावला सहित ), हस्तिकुंड ( हटूंडी), धुलेवा ( केसरियानाथ), चंवलेश्वर, वरकाणा, घाणेराव, पिंडवाडा, महावीरजी, सांगानेर, आमेर, अजमेर आदि स्थान प्रसिद्ध हैं। आबू पर्वत पर विक्रम १०८८ संवत्सर में बनवाया हुआ विमलशाह का 'विमलवसही' प्रासाद और १२८७ में वस्तुपाल तेजपाल मंत्रीश्वर की ओर से शोभनदेव शिल्पी द्वारा निर्मित “लुणिगवसही" प्रासाद तो जगत् प्रसिद्ध हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार जेम्स टाड ने इन मन्दिरों को देखकर सन्त साइराव्यूज की भांति कहा था कि एराका ( Eraka ) " मैं ढूंढता था वह मिलगया ।" राणकपुर में धरणाशाह द्वारा बनवाया गया सहस्र से ऊपर कलापूर्ण स्तम्भों की छटावाला मन्दिर भी भारत की उत्कृष्ट कला का एक नमूना है । उसी प्रकार कुंभारिया के मन्दिर में भी शिल्प के उत्कृष्टतम नमूने हैं। इतिहासज्ञ फार्बस के कथन के अनुसार यहां किसी समय बडा नगर रहा था जिसमें ३६० जैन मन्दिर थे, किन्तु नगर भूकम्प से नष्ट हो गया । अभी वहां ५ जैन मन्दिर हैं, जो आलीशान और ऐतिहासिक हैं तथा आबू के देलवाडा मन्दिर जैसी दिङ्मूढ करनेवाली वहां की स्थापत्य कला है। जोधपुर के पास मंडोर पर भी एक हजार वर्ष पुराना जैन मन्दिर बताया जाता है। जैन मन्दिरों में अनेक स्थानों पर उनके साथ ही ग्रन्थ-भंडार भी हैं जिनमें अलभ्य, अति