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तीर्थ मंदिर जैनस्थापत्य और शिल्प अथवा ललितकला । बड़ी मदद मिल सकती है । मोहन-जोडोरा की खुदाई से भारत के इतिहास पर कितना गहरा प्रकाश पड़ा है, वह किसी से अज्ञात नहीं है। ज्ञात वस्तुओं के आधार पर अज्ञात वस्तुओं की कल्पना होती है और अनुमान बांधे जाते हैं जो बहुत कुछ सच्चाई के निकट ही होते हैं । एलोरा और एलीफेन्टा, खजुराहो और सांची, भुवनेश्वर और अजन्ता के इतिहास हमारे भारत के शिल्पवैभव और चित्रकला के ही तो इतिहास हैं । परन्तु इनने जो भारत के प्राचीन इतिहास के विविध अंगों को भी समझने में जो सहाय दी है वह भी कम महत्त्व की नहीं है । इन शिल्प के नमूनों में पीछे से कुतुबमीनार और ताजमहल भी सम्मिलित कर लिये गये हैं। भारत के इतिहास में इन सब पर अच्छा लिखा गया है । जैनधर्म और जैन समाज भारत के धर्मों में और भारत की अन्य समाजों में विस्मरण की वस्तु ही रही प्रायः मालम होती है अथवा इसके प्रति विद्वानों का समदर्शी और असाम्प्रदायिक भाव रहा हुआ नहीं प्रतीत होता है। जैन धर्म जैन साहित्य में प्रतिष्ठित है जो प्राकृत और अर्धमागधी में अपनी विपुलता, विशालता एवं विविध मुखता के लिये दुनिया भर में प्रसिद्ध है और वह प्राचीन हिन्दी तथा मध्यकालीन हिन्दी में भी इतना ही सृजित मिलता है । इस ही प्रकार जैन समाज की धर्म-भावनाओं के दर्शन, उनके वैभव का परिचय, उसका चित्रकला-प्रेम एवं ललितकलाप्रियता उसके प्राचीन मंदिरों में दृष्टिगोचर होते हैं । भारतीय शिल्प के विकास के इतिहास पर विद्वानोंने बड़े २ पोथे रचे हैं और यवन-शैली, योन-शैली और हिन्दू-शैलियों से विचार करके उसके कई भेद और उपभेदों की कल्पना की है । परन्तु जब हम प्राचीन जैन मूर्तियां
और मंदिरों की बनावट और उनमें अवतरित भाव और टांकी के शिल्प को देखते हैं तो यह विचार उत्पन्न होता है कि ललितकला के विकास के इतिहास पर लिखनेवाले विद्वानों की दृष्टि में कला के अद्भुत नमूने ये जैन मूर्ति और मंदिर क्यों नहीं आये। उदयगिरि और खण्डगिरि की जैन गुफायें, खजुराओ, तीर्थाधिराज शत्रुञ्जय, गिरनारतीर्थ के मंदिर, शिल्पकला के अनन्य अवतार अबूंदस्थ देउलवाडा के जिनालय, हमीरपुरतीर्थ, कुम्मारिया, श्रीराणकपुरतीर्थ का १४४४ स्तंभोंवाला विशाल-काय अद्भुत जिनालय, लोद्रवा मंदिर इनको जिनने देखा वे दंग रह गये, परन्तु वे कुतुबमीनार और ताजमहल के आगे अथवा साथ भी वर्ण्य नहीं समझे गये।
भारत की स्थापत्य-कला और शिल्प-कला का ग्रंथ तब तक पूर्ण और सर्वसम्मान्य नहीं हो सकेगा, जब तक कि उक्त जैन मंदिर इसमें प्रकरण नहीं प्राप्त कर सकेंगे।
शत्रुञ्जयपर्वत पर शत्रुञ्जयतीर्थ अवस्थित है । शत्रुञ्जय तीर्थ में ९ (नव ) ढूंक अर्थात् नव विशाल और मुविस्तृत दुर्ग हैं। इन ढूंकों में छोटे-बड़े लगभग तीन सहस से ऊपर