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जैनस्थापत्य और शिल्प अथवा ललितकला दौलतसिंह लोढ़ा 'अरविंद ' बी. ए. सरस्वतीविहार, भीलवाड़ा
संसार के प्रत्येक देश, प्रान्त और कहीं २ उपप्रान्त में भी एकविध स्थापत्य-कला थोड़े २ अन्तर से पायी जाती है, जो अति दूर जा कर दो सुदूर देशों में एकदम भिन्न प्रतीत होती है। परस्पर प्रभाव का तादात्म्य रहने पर भी स्थापत्य-कला के अंगों की रचना तद्देशीय अथवा तद्भूभाग के भूगोल और जलवायु के आश्रित ढलती है । ज्वालामुखीप्रधान, सिकताप्रधान, पर्वतप्रधान और समतलप्रधान तथा समुद्रतटों के किनारे उसके दर्शन भिन्न २ आकृतियों में ही होते हैं। यह बात तो मोटे रूप से स्थापत्य की रही । स्थापत्य में जो सूक्ष्मर करकला का मिश्रण अथवा योग या संग हुआ है वह धर्म-भावनाओं के आश्रित ही समझना चाहिए।
भारत एक विशाल देश है और यह कई मत अथवा धर्मानुयायी ज्ञातियों का निवास है। बड़े रूप में इस इतिहास काल में यह जैन, बौद्ध और वैदिक धर्मानुयायियों का वास रहा है। विक्रम की ११ वीं-१२ वीं शताब्दी में इसके निवासियों में यवन ज्ञातियां भी संमिलित हो गई हैं । भारत का स्थापत्य अरब, चीन, रूस आदि प्रदेशों से तो भिन्न है ही। वह भारत की भूगोळ और भारत के जलवायु के आश्रित हो कर समस्त भारत भर में तो एकसा ही मूर्तित होना चाहिए था; परन्तु वह धर्माश्रित हो रूप और आकार में कई प्रकार का मिलता है। वैसे समस्त भारत धर्म-प्रधान देश रहा है और मोटे रूप से अहिंसा-प्रधान । जैनेतर ज्ञातियों में कई वर्ग मांसाहारी भी है। परन्तु इनके धर्म और मत तो मांस-भक्षण और मदिरा-पान का जैनधर्म के समान ही खण्डन करनेवाले रहे हैं; अतः जैसा भारतवासियों का रहन-सहन परस्पर प्रभावित रहा है वैसा ही स्थापत्य भी परस्पर प्रभावित रहा है । एक देश के स्थापत्य में जो भूमि और जलवायु के आश्रित रह कर थोड़ा-अन्तर घटता चलता है; वह तो इतना सूक्ष्म और अल्प होता हैं कि कोई बड़े से बड़ा ही स्थापत्य-विद्वान् उसको समझ सकता है; परन्तु जहां करकला अर्थात् शिल्प का प्राधान्य होता है वहां तुरंत ही कहा जा सकता है कि अमुक मंदिर, धर्मस्थान जैन, बौद्ध, हिन्दू अथवा मुसलमान है । भारत में स्थापत्य की दृष्टि से भारतवासियों के प्राचीन घर और भवनों का अध्ययन भी एक विशेष आनंददायी विषय है, जिससे यहाँ का रहन-सहन, खान-पान, गरीबी-अमीरी, वर्ण-भेदों के इतिहासों को जानने में
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