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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-पंथ जैनधर्म की प्राचीनता दो दक्षिणावहा तू , कंचीए णेलओ स दुगुणो य ।
एगो कुसुमनगरगो, तेण परमाणं इमं होति ॥ ३२९२ ॥" अर्थात्-'द्वीप' के २ ' साभरकों'' उत्तरापथ' की १ रजत मुद्रा,
• उत्तरापथ' की २ मुद्राएँ='पाटलिपुत्र' की १ रजत मुद्रा । 'दक्षिणापथ'की २ रजत मुद्रायें ='द्राविड देश'की 'कांचीपुरी' की एक नेळक'(Nelaka) ‘कांचीपुरी' के २ ' नेळक '=' कुसुमपुर' अर्थात् 'पाटलिपुत्र' की १ रजत मुद्रा ।
यह उपरोक्त कथन नीचे की इस टिप्पणी से स्पष्ट हो जाता है:-" द्वीपं नाम सुराष्ट्राया दक्षिणस्यां दिशि समुद्रमवगाह्य यद् वर्तते तदीयौ द्वौ साभरको रूपको स उत्तरापथे एको रूपको भवति । द्वौ च उत्तरापथ रूपको पाटलिपुत्रक: एको रूपको भवति । अथवा दक्षिणापथौ द्वौ रूपको काञ्चीपुर्या द्रविडविषयप्रतिबद्धयाः एक नेलकः रूपको भवति । सः कामवीपुरीरूपको द्विगुणितः सन् कुसुमनगरसत्क एको रूपको भवति । कुसुमपुरं पाटलिपुत्रमभिधीयते ।" Op. Cit., Vol., IV, P. 1069 ।
_' द्वीप ' अथवा 'दीव' का 'सुराष्ट्र' के दक्षिण में समुद्र पर स्थित होना ध्यान देने योग्य बात है। यह वर्तमान पुर्तगाल अधिनस्थ प्रदेश — दीव' ही होना चाहिए जैसा कि ११ वीं शताब्दी A. D. में निर्मित ' प्रवचन सारोद्धार २० के इन पदों पर की गई 'प्रवचनसारोद्धार-टीका ' में निर्दिष्ट इसकी सौराष्ट्र से दूरी के विवरण से स्पष्ट है । परन्तु क्षेमकीर्ति इस प्रकार का निर्देश नहीं करते कि यह सौराष्ट्र के तट से एक योजन दूर समुद्र पर अवस्थित था । डा. मोतीचन्द्र · दीव' में प्रचलित 'साभरको' का इस्लामपूर्व की मुद्रा ' सबेअन' ( Sabean ) से संबंध स्थापित करते हैं । ' आवश्यक चर्गी' ( Avasyaka earni ) ( 0 676 A. D. ) में । द्वीप' और 'जोण' को प्रेतभूमि ( मतग-लेण ) कहा गया है ।
नेळक ' के विषय में अभीतक कुछ मालूम नहीं हुआ है । क्या यह पल्लवों की कोई मुद्रा थी ?
और भी अधिक महत्वपूर्ण प्रमाण तो छठी शताब्दी A. D. के अप्रकाशित ग्रंथ
२०. सिद्धसेन की टीका सहित नेमिचन्द्र की प्रवचनसारोद्धार ', पद ७९७-९९ और टिप्पणी,Vol. 11, pp. 233 ff. यह टिप्पणी ( comm.) इस प्रकार है:
द्वीपश्चयः सुराष्टामण्डले दक्षिणस्यां दिशि योजनमात्रमवगाह्य तिष्ठति सोऽत्र गृह्यते. २१. डा. जे. सी. जैन, op. cit, P. 201 और P. 120 देखिये ।