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भीमद् विजयराजेन्द्ररि-स्मारक-ग्रंथ जैनधर्म की प्राचीनता भारमल के राज्य में १५५९ ई. में पाण्डवपुराण और हरिवंशपुराण लिखे गये । भारमल के पश्चात् भगवानदास राजा हुआ। उसके समय वर्धमान चरित्र लिखा गया । मानसिंह के राज्य में भी जैनधर्म का उत्थान हुआ। उसके समय में हरिवंश पुराण की तीन प्रतियां लिखी गई। १५९१ ई. में थानसिंह ने संघ निकाला और पावापुरी में सोड़सकारण यंत्र की प्रतिष्ठा की । १६०५ ई. में चंपावती (चाकसू ) के मंदिर के स्तंभ का निर्माण किया गया । मोजमाबाद में जेताने इसी राजा के राज्य में १६०७ ई. सैकड़ों मर्तियों की प्रतिष्ठा की ।
मिर्जा राजा जयसिंह के समय में भी जैनधर्म का प्रभाव अच्छा रहा। इसके मंत्री मोहनदासने आमेर में विमलनाथ का मंदिर बनवाया और स्वर्ण कलश से इसको सुशोभित किया । १६५९ में इसने इस मंदिर में अन्य भवन भी बनाये ।
___ सवाई जयसिंह के समय जैनधर्मने बहुत उन्नति की। उसके समय में रामचन्द्र छाबड़ा, रावकृपाराम तथा विजयराम छाबड़ा नाम के तीन दिवान हुए जिन्होंने जैनधर्म के प्रचार के लिए बहुत प्रयत्न किया । रामचन्द्र ने शाहबाद में जैनमंदिर बनाया । उसने तथा उसके पुत्र कृष्णसिंह ने भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति के पट्टाभिषेक में भाग लिया । राव कृपाराम ने चाकसू तथा जयपुर में जैन मंदिर बनाये । उसने भट्टारक महेन्द्रकीर्ति के पट्टाभिषेक के उत्सव में भाग लिया तथा उनके सिर पर जल छिड़का । विजयराम छाबड़ाने सम्यक्त्वकौमुदी लिखवा कर पंडित गोविंदराम को १७४७ में भेंट की।
सवाई माधोसिंह के समय भी जैनधर्म का उत्थान होता रहा। उसके समय में भी जैन दीवान रहे। बालचन्द्र छाबड़ा १७६१ में दीवान हुआ। उसने प्राचीन जैन मंदिरों को ठीक करवाया तथा नये मंदिर भी बनवाये । जयपुर में इन्द्रध्वज पूजा महोत्सव इसके प्रयत्नों से ही हुआ । उसका राज्य में अच्छा प्रभाव था। इसी करण इसके लिए राज्य से इस प्रकार का
आदेश दिया गया कि ' था पूजाजी के अर्थि जो वस्तु चाहिजे सो ही दरबार सूं लेजाओ'। केशरीसिंह काशलीवाल ने जयपुर में सिरमोरियों का मंदिर बनवाया। कन्हैयाराम ने वैदों का चैत्यालय का निर्माण करवाया।
नंदलाल ने जयपुर और सवाई माधोपुर में जैन मंदिर बनवाये । १७६९ ई. में पृथ्वीसिंह के राज्य में सुरेन्द्रकीर्ति के उपदेश से उसने अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई । बालचन्द छाबड़ा का पुत्र रायचन्द छाबड़ा जगतसिंह का मुख्य मंत्री बना। उसने यात्रा के लिए संघ निकाले । इस कारण उसको संघपति का पद दिया गया। उसने १८०१ में जूनागढ़ में भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति के उपदेश से यह प्रतिष्ठा की । इसी भट्टारक के उपदेश से