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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसरि-स्मारक-ग्रंथ जैनधर्म की प्राचीनता बुद्ध की मृत्यु ई० पू० ४८३ में हुई। यदि महावीर का निर्वाण काल ई० पू० ४७९ स्वी. कार कर लिया जाय तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि बुद्ध की मृत्यु महावीर से कम से कम चार वर्ष पूर्व हो गई थी। किन्तु वास्तविकता इसके विपरीत है। हम यह जानते हैं कि बुद्ध और उनके निजी सहायक सारिपुत्र को, जिनकी मृत्यु तथागत से पूर्व हुई, न केवल पावा में महावीर के निर्वाण और तदुपरान्त जैन संघ में होनेवाले भेद की ही सूचना मिली थी, वरन् वे इस बात से चिन्तित भी थे कि कहीं यह संक्रामक रोग बौद्ध संघ में भी न फैल जाय और उसके अनुयायी भी वैसी स्थिति में उसी प्रकार व्यवहार न करने लगे [ Digha Nikaya, iii, pp. :09 ff. P. T. S. ] । इसके लिए एक और भी प्रमाण है। चुण्ड नामक एक बौद्ध श्रमणोदेश ( समणुदेस ), जिसने महावीर की तरह ही पावा में वर्षावास किया था, (पावायां वसवुत्थो ), जब शाक्य राज्य में स्थित सामगाम में बुद्ध के दर्शनार्थ आता है, तो वह आनन्द को सूचित करता है कि निगण्ठ नातपुत्त ( महावीर ) का अभी हाल ही में पावा में देहावसान हो गया है (पावायां अधुना कालकतो होती) और उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके अनुयायी दो दलों में विभक्त होकर (द्वेधिकजाता भंडनजाता ) विरोधी विचारों का प्रतिपादन कर रहे हैं। यही नहीं, उनका कलह इस सीमा तक पहुँच गया है कि वे एक दूसरे को अपशब्द भी कहने पर उतारू हो गए हैं। इस घटना से वे दोनों बौद्ध संघ की एकता तथा मर्यादा की समस्या की चिन्ता लेकर विचार करने के हेतु बुद्ध के पास पहुंचे । बुद्ध ने इस सम्बन्ध में दो उपदेश दिए जिनमें से एक विशेष रूप से चुण्ड, और दूसरा उनके शिष्य आनन्द के लिए था। चुण्ड को दिए गए लघु उपदेश को दीघभाणकों ने और आनन्द को दिए गए लघु उपदेश को मज्झिमभाणकों ने लिपिबद्ध किया है [ Digha Nikkya, iii, pp. 117-41, P. T. S. तथा Majjhima Nikaya. ii, pp. 248-51, P. T. S. ] । अतः हम यदि कल्पसूत्र की इस परम्परा को मान लें कि महावीर का देहान्त चातुर्मास के चौथे मास में, सातवें पक्ष में कार्तिक कृष्ण पक्ष की अमावस्या को ( दीपावली के दिन ) राजा हस्तिपाल के पापा ( पावा ) स्थित सचिवालय में हुआ तो हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उनका देहान्त बुद्ध से पूर्व हो गया था, क्योंकि यह हम निश्चित रूप से जानते हैं कि बुद्ध ने एक ऐसे व्यक्ति से बौद्ध संघ के भविष्य के सम्बन्ध में विमर्श किया, जो महावीर के साथ पावा में चातुर्मास व्यतीत कर चुका था। इस प्रकार वे जैन संघ में होनेवाले उथल-पुथल तथा उसके उपासकों पर होनेवाली प्रतिक्रियाओं से भी भलीभाँति अवगत थे ।