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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक -ग्रंथ
ललितकला और
भूमि से निर्गत उपरोक्त विशाल, प्राचीन और सर्वाङ्गसुन्दर श्री ऋषभदेवस्वामी की प्रतिमा दो काउसगियों के सहित विराजमान हैं । इस विशालकाय मन्दिर की प्रतिष्ठा और इसी उत्सव में नवीन तीन सौ जिनबिम्बों की अंजनशलाका सं. १९५९ वैशाख शु० १५ गुरुवार के दिन श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने की है। 1
राज्यपरिवर्तन
कोटाजी जागीर पर प्राचीन समय में किस-किस राजा एवं सामंत, ठक्कुर का अधिकार रहा ? वह बतलाना अति कठिन है । परन्तु प्राप्त सामग्रियों से जान पड़ता है कि इस पर भीनमाल के राजा रणहस्ती वत्सराज, जयन्तसिंह - उदयसिंह और चाचिगदेव का, चन्द्रावती और आबू के परमार राजाओं का, अणहिलवाड (पाटण) के चावडा और सोलंकियों का, नाडौल और जालोर के सोनगरा चौहानों का, सिरोही के लाखावत देवडा चौहानों का, आंबेर और मेवाड़ के महाराणाओं का क्रमशः अधिकार रहा । सं. १८१३ और १८१९ के मध्य में उदयपुर महाराणा की कृपा से पांच गांवों के साथ कोरटा जागीर वांकली के ठाकुर रामसिंह को मिली । गोडवाड़ परगना जब जोधपुर के महाराजा को मिला तब महाराजा विजयसिंहजीने सं. १८३१ जेठ कृ० ११ को ठाकुर रामसिंह को कोरटा, बांभणेरा, ३ पोईणा, ४ नाखी, ५ पोमावा, ६ जाकोडा और ७ वागीण इन सात गांवों की जागीर की सनद करदी और अब तक उसीके वंशजों के अधिकार में रही है । कोराजी तीर्थ का मेला
इस प्राचीनतम तीर्थ की समुन्नति के लिये कूणीपट्टी के २७ गांवों के जैनोंने विद्वान् मुनिवरों की सम्मति मान कर कार्त्तिक शु० १५ और चैत्र शु० १५ के दो मेले सं. १९७० से प्रारंभ किये जो आज तक प्रतिवर्ष भरते चले आ रहे हैं। यात्रियों के आराम के लिये एक विशाल धर्मशाला और एक प्राचीन उपासरा भी है। जैनियों के लिये संक्षिप्त सूचना
यहां तीन प्राचीन और एक नवीन एवं चार सौधशिखरी जिनमंदिर हैं । सब से प्राचीनतम श्रीमहावीर प्रभु का मन्दिर है । यह तीर्थं एरनपुरारोड स्टेशन से १२ माइल पश्चिम में है । एरणपुरारोड से कोरटाजी तक मोटर, बेलगाड़ी, टांगा, ऊंट आदि सवारियाँ मिलती हैं । आबूराज और गोडवाड़ की पंचतीर्थी की यात्रा करनेवाले यात्रियों को इस प्राचीनतम तीर्थ की यात्रा का भी लाभ अवश्य लेना चाहिये |