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श्रीमत् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रय ललित कला और प्राचीन श्री महावीर मन्दिर
इसकी प्राचीनता सिद्ध करनेवाला श्रीमहावीर प्रभु का मन्दिर है । यह धोलागढ पहाडी से, अथवा कोरटाजी से पौन माइल दक्षिण में 'नहरवा' नामक स्थान में स्थित है। श्री वीरनिर्वाण के बाद ७० वर्ष पीछे इस भव्य मन्दिर की प्रतिष्ठा हुई है ऐसा उपकेशगच्छ पट्टावली से विदित होता है। इसके चारों तरफ सुदृढ परिकोष्ट और भीतरी आंगण में प्राचीन समय का प्रच्छन्न भूमिगृह (तलधर) बना हुआ है । श्री कल्पसूत्र की कल्पद्रुमकलिका नामक टीका और रत्नप्रभाचार्य पूजा में लिखा है कि उपकेशगच्छीय श्री रत्नप्रभसूरिजीने ओसियां और कोरंटक नगर में एक ही लग्न में दो रूप कर के महावीर प्रतिमा की प्रतिष्ठांजनशलाका की। प्रसिद्ध जैनाचार्य आत्मारामजीने भी स्वरचित जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर के पृष्ठ ८१ में लिखा है कि-" एरनपुरा की छोवनी से ३ कोश के लगभग कोरंट नामा नगर ऊजड़ पड़ा है जिस जगो कोरटा नामका आज के काल में गाम वसता है, तहां भी श्री महावीरजी की प्रतिमा श्री रत्नप्रभसूरिजी की प्रतिष्ठा करी हुई है । विद्यमान काल में सो मन्दिर खड़ा है।"
पंडित धनपालने वि. सं. १०८१ के लगभग " सत्यपुरीय श्री महावीर उत्साह" बनाया है। उसकी १३ वीं गाथा के ' कोरिट सिरिमाल धार आहडु नराणउ,' इस प्रथम चरण में कोरंट तीर्थ का भी नमस्करणीय उल्लेख किया गया है । तपागच्छीय सोमसुन्दरजी के समय में मेघ ( मेह) कविने स्वरचित तीर्थमाला में ' कोरंटउ', पंन्यास शिवविजयजी के शिष्य शीलविजयजी ने अपनी तीर्थमाला में ' वीर कोरटि मयाल,' और ज्ञानविमल. सूरिजीने निज तीर्थमाला में ' कोरटई जीवितस्वामीवीर ' इन वाक्यों से इतर तीथों के साथ-साथ इस तीर्थ को भी वंदन किया है । इन कथनों से भी जान पड़ता है कि विक्रम की ११ वीं शती से लेकर १८ वीं तक यहाँ अनेक साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका यात्रा करने को आते थे । अतएव यह पवित्र पूजनीय तीर्थ है और अति प्राचीन प्रतीत होता है। प्रतिमा परावर्तनः
आचार्य रत्नप्रभसूरि-प्रतिष्ठित श्री महावीर प्रतिमा कब और किस कारण से खंडित या उत्थापित हुई ज्ञात नहीं । संवत् १७२८ में विजयप्रभसूरि के शासनकाल में जयवि. जयगणि के उपदेश से जो महावीर प्रतिमा स्थापित की गई थी उसका इस मन्दिर के मंडपगत एक स्तंभ के लेख से पता लगता है। लेख इस प्रकार है।
" संवत् १७२८ वर्षे श्रावण शुदि १ दिने, भट्टारक श्री विजयप्रभसूरीश्वरराज्ये,