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तीर्थ-मंदिर कोरटाजी तीर्थ का प्राचीन इतिहास ।
५९३ कोरटानगरे पंडित श्री ५ श्री श्रीजयविजयगणिना उपदेशथी मु. जेता पुरसिंगभार्या, मु. महा. रायसिंग भा० सं० बीका, सांवरदास, को. उघरणा, मु० जेसंग, सा० गांगदास, सा० लाधा, सा० खीमा, सा. छांजर, सा० नारायण, सा० कचरा प्रमुख समस्त संघ भेला हुईने श्री महावीर पवासण बइसार्या छे, लिखितं गणि मणिविजयकेशरविजयेन, वोहरा महवद सुत लाधा पदम लखतं समस्त सघंनइ मांगलिकं भवति शुभं भवतु "
इस प्रतिमा के भी शिखा, कान, नासिका, लंछन, परिकर, हस्तांगुली और चरणांगुलियां खंडित हो गई थीं । अतः पूजने और सुधराने के योग्य न होने से उसके स्थान पर नवीन महावीर प्रतिमा वि. सं. १९५९ वैशाख शुदि १५ गुरुवार के दिन महाराज श्री विजयराजेन्द्रसूरिजीने स्थापित की जो विद्यमान है । और जयविजयगणि स्थापित खंडित प्रतिमा भी स्मृति के लिये गूढमंडप में विराजमान रक्खी गई है।
नवीन महावीर प्रतिमा कोरटा के ठाकुर विजयसिंह के समय में सियाणा (मारवाड़)निवासी प्राग्वाट पोमाजी लुंबाजीने बनवाई है । जो वह लगभग ७ फुट ऊंची है और बहुत सुन्दर है। प्रतिष्ठा के समय जो एक छोटा प्रशस्ति-लेख लगाया गया था, उससे जान पड़ता है कि महावीर प्रतिमा को कोरटाजी के रहनेवाले ओसवाल कस्तूरचंद यशराजने विराजमान की थी। हरनाथ टेकचंदने वीर मंदिर पर कलशारोपण किया था, पोमावानिवासी सेठ हरनाथ खूमाजीने ध्वजा और कलापुरानिवासी ओसवाल रतनाजी के पुत्रोंने दंडारोपण किया था। कोरंटकनगर की प्राचीन जाहोजलाली
इस ग्राम के कोरंटपुर, कोरंटक, कोरंटी, कणयापुर, कोलापुल क्रमशः परिवर्तित नाम मिलते हैं । वि. सं. १२४१ के लेखों में इसका कोरंट' नाम सर्व प्रथम लिखा हुआ ज्ञात होता है । इससे पूर्व के लेखों में यह नाम नहीं पाया जाता । उपदेशतरंगिणी ग्रन्थ से पता चलता है कि ' संवत् १२५२ में यहां श्री वृद्धदेवसूरिजीने चौमासा कर के मंत्री नाहड़ और सालिग के पांचसौ कुटुंबों को प्रतिबोध देकर जैन बनाया था। इन के पहले भी कोरंटनगर में वृद्धदेवसूरिजीने तीस हजार जैने तर कुटुम्बों को जैन बनाया था, ऐला वृद्धप्रवाद है । इस कथन से इस की समृद्धता एवं सम्पन्नावस्था का तो सहज अनुमान हो सकता है।
१“एकदा कोरण्टस्थाने वृद्धश्रीदेवसूरयो विक्रमात् सं. १२५२ वर्षे चतुर्मासी स्थिता; तत्र मंत्रि नाहड़ो लघुभ्राता सालिगस्तयोः ५०. कुटुम्बानां च प्रतिबोधस्तत मुद्रित उपदेशतरंगिणी पृ. १०२।