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श्रीमद् विजयराजेन्द्रभूरि-स्मारक-पंथ जैनधर्म की प्राचीनता यद् गौडः- 'कार्षापणोऽस्त्री कार्षिके पणेषु षोडसस्वपि । "-हेमचन्द्रकी 'लिंगानुशासन' ( linganusāsana ) पर 'स्वोपज्ञ वृत्ति' (Sropaji avrtti ) (आचार्य लावण्यविजय द्वारा संपादित ) का अध्याय ५ (v). पद १५, पृ. ६६ ।।
डा० अग्रवालने 'कार्षापण' के 'विंशटिक' (Vimsatika) और त्रिंशटिके (Trinm. stika) भेदों पर विचार किया है जो क्रमशः २० माषा (४० रत्ति-७५ प्रेन) और ३० माषा (६० रत्ति-११० ग्रेन ) के हैं और बतलाया हैं वे बहुत ही प्राचीन समय में पूर्वी भारत में मिले हैं । " हेमचन्द्र के अनुसार एक कार्षापण' १६ 'पणों के समान है । अब यदि हम स्मरण करें कि 'वासुदेवहिंडि' में इसे एक बहुत छोटी मुद्रा कहा गया है तो हमें ऐसा भान होने लगता है कि 'पण' अवश्य ही एक ताम्र 'कार्षापग' के बराबर रही होगी। यहाँ यह बतलाना उचित होगा कि 'नारद' में भी 'पण' के विषय में उल्लेख मिलता है जो कि (रजत) - कार्षापण' का सोलहवा हिस्सा था। हेमचन्द्र के प्रकरण से प्रकट होता है कि कार्षाषण' जोकि सोलह 'पर्णो' के बराबर होता था, प्राचीन समय में पश्चिमी भारत में प्रचलित था । पर हमे यह नहीं समझना चाहिए कि स्वयं हेमचन्द्र के समय में भी इसका प्रचलन था। वे तो संभवतः पश्चिमी भारत की प्राचीन परंपराओं का उल्लेख भर कर रहे थे।
३१. JUPHS. Vol. XI, pp. 74 ff; vol. XII, pt. 1, pp. 7 ff. ३२. डा० ए, एस० अन्तैकर, op. cit. p. 3 और p. 17 ff.