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भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जैनधर्म की प्राचीनता कुमारपाल का सामंत था। उसने जैनधर्म स्वीकार कर लिया तथा अपने राज्य में जीवबध बन्द करवा दिया । उसके शिलालेखों से पता चलता है कि उसने जैन मंदिरों को अनेक दान दिये । इसके पश्चात् उसका पुत्र रायपाल गद्दी पर बैठा। उसके समय में भी भूमि, अनाज, धन आदि का दान मंदिरों को दिया गया। आरहणदेव तथा केरहणदेव के राज्य में भी अनेक मंदिरों तथा मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई। उन्होंने मन्दिरों को अनेक प्रकार के दान भी दिये।
जालोर के चौहान राजाओं के राज्य में भी जैनधर्म बढ़ा चढ़ा । समरसिंह के राज्य में यशोवीर नाम के धनीने एक मंडप तैयार करवाया। इसी राजा के आदेश से यशोवीरने कुमारपाल द्वारा निर्मित पार्श्वनाथ के मंदिर का पुनरुद्धार करवाया । चाचिगदेव के राज्य में तेलीया ओसवालने महावीर के मंदिर को ५० द्राम दान में दिए।
इस प्रकार चौहानों के राज्य में जैनधर्म और हिन्दूधर्म साथ-साथ पनपे तथा फूले । दोनों धर्मों में आपस में किसी प्रकार की वैमनस्यता नहीं थी । राजा लोग एक साथ हिन्द देवताओं तथा जैन तीर्थंकरों की पूजा करते थे और दोनों के उत्सवों में भाग लेते थे।
चावडों तथा सोलंकियों के राज्य में जैनधर्म चाबड़ों तथा सोलंकियों के राज्य में जैनधर्म का अधिक प्रचार हुआ । चावड़ वंश का संस्थापक वनराज था । उसने शीलगुणसूरि को अपनी राजधानी आने को आमंत्रित किया तथा अपने समस्त राज्य को सूरिजी के चरणों में अर्पित करने को तैयार हो गया। इसका कारण यह था कि जब वनराज जंगल में पलने पर सोया हुआ था, उस समय सूरिजीने उसके शारीरिक चिन्हों को देख कर यह भविष्यवाणी की थी कि वह आगे चल कर राजा होगा। निस्वार्थ भाव रखनेवाले सूरिजीने इसको स्वीकार नहीं किया, किंतु उनके आदेशानुसार उसने अणहिलपुर पाटन में पंचासर नाम के मंदिर का निर्माण करवाया तथा उसमें पार्श्वनाथ की प्रतिमा की स्थापना की। उसने श्रीमाल तथा मरुधरदेश के जैन व्यापारियों को अणहिलपुर पाटन में बसने को आमंत्रित किया।
मूलराज सोलंकीने अंतिम चावड़ा राजा से ई. ९४२ के करीब गद्दी प्राप्त की । इसका राज्य राजस्थान के बहुत से हिस्सों में फैला हुआ था। वह जैनधर्म का प्रेमी था तथा उसने मूलराजवसहिका बनाई।
जैनधर्म का सब से अधिक प्रचार सोलंकियों के समय में हुआ। यह समय प्रसिद्ध विद्वान् हेमचन्द्र का था। उसकी गहन विद्वता तथा पवित्र जीवन के कारण राजस्थान तथा