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और उसका प्रसार राजस्थान में जैनधर्म का ऐतिहासिक महत्व । गुजरात में जैनधर्म बहुत फैला । उस समय वह जैन समाज का सब से बड़ा नेता व प्रचारक था । विद्वत्ता तथा जीवन की पवित्रता की दृष्टि से उसकी तुलना शंकराचार्य से की जा सकती है । जयसिंह शैवधर्म का अनुयायी होने पर भी जैनधर्म को आदर की दृष्टि से देखता था । इसी कारण से उसके दरबार में दिगम्बर साधु कुमुदचन्द्र और श्वेताम्बर साधु देवसूरि के मध्य में ११२५ ई. में वादविवाद हुआ जिसको देखने के लिए अवश्य ही पास पड़ोस के व्यक्ति आये होंगे । हेमचन्द्र जैसे जैन विद्वान् उसके दरबार की शोभा बढ़ाते थे ।
जयसिंह के पश्चात् कुमारपाल गद्दी पर बैठा । वह धीरे-धीरे हेमचन्द्रसूरि के प्रभाव में आया और अंत में जैनधर्म को स्वीकार कर लिया। उसने जैनधर्म के प्रचार के लिए अनेक साधनों का प्रयोग किया और अपने राज्य को एक आदर्श जैन राज्य बना दिया। उसने अशोक के समान केवल स्वयंने ही विलास-प्रिय वस्तुओं को नहीं त्यागा, किंतु जनता को भी अपने अनुसार ही चलने का अनुरोध किया। उसने अपने राज्य में जीवबंध को रोक दिया। द्वाश्रय के अनुसार पाली देश में बाह्मण लोगों को यज्ञ में पशुओं की बलि के स्थान पर अनाज का प्रयोग करना पड़ता था । मेरुतुंग के अनुसार एक साधारण व्यापारी को एक चूहे को मारने के अपराध में अपनी समस्त सम्पत्ति मूकाविहार बनाने में खर्च करनी पड़ी। यह सब कुछ बढ़ा चढ़ा कर लिखा गया हो, किंतु इसमें कुछ सत्य अवश्य है । उसने अपने राज्य में भिन्न-भिन्न स्थानों पर शास्त्रभंडारों की स्थापना की। वह एक बड़ा भारी निर्माता भी था । उसने अनेक जैनमंदिर बनाये । जालोर में भी उसने एक जैन मंदिर बनाया ।
कुमारपाल की मृत्यु के पश्चात् जैनधर्म की उन्नति में कुछ बाधा अवश्य आई, किन्तु फिर से इसने विमल, वस्तुपाल और तेजपाल जैसे महापुरुषों की संरक्षता में उन्नति की । ये पक्के भक्त थे। इन्होंने जैनधर्म की उन्नति के लिए अनेक प्रयत्न किये। चालुक्य राजा भीम प्रथमने विमल को अपना गवर्नर बनाया। उसने भीम और धन्धू के मध्य में मित्रता करवाई। धन्धू के आदेश से() उसने १०८२* ई. में आबू में एक सौन्दर्यपूर्ण मंदिर का निर्माण करवाया जो कि संसार के अद्भुत कलापूर्ण मंदिरों में गिना जाता है । वस्तुपाल और तेजपाल पहले भीम द्वि० के मंत्री थे और बाद में वीरधवल के मंत्री रहे। तेजपाल ने १२३० ई. में आबू में एक कलापूर्ण मंदिर बनाया । इस मंदिर की पूजा के खर्च के लिए समरसिंह ने इबाणी नाम का ग्राम दान में दिया।
परमारों के राज्य में जैनधर्म:-परमार राजाओं की संरक्षता में भी जैनधर्म ने *वि. सं. १०८८ में, न कि ई० सन् १०८२में । संपा० दौलतसिंह लोढ़ा।