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और उसका प्रसार राजस्थान में जैनधर्म का ऐतिहासिक महत्व । ५५९ शक्ति व शांति था। यह वारा कोटा राज्य का ही बारा है, क्यों कि यह। आठवीं और नवमी शताब्दी में भट्टारकों की गद्दी भी रह चुकी है । शेरगढ़ में ग्यारहवीं शताब्दी की तीन विशाल प्रतिमायें राजपूत सरदार द्वारा प्रतिष्ठित की हुई हैं। इन मूर्तियों के शिलालेख से ज्ञात होता है कि शेरगढ़ पहले कोषवर्द्धन के नाम से प्रसिद्ध था। रामगढ़ की पहाड़ियों में आठवीं
और नवमी शताब्दी की जैन गुफाये हैं । यह स्थान पहले श्रीनगर के नाम से प्रसिद्ध था। इन गुफाओं में एलोरा की गुफाओं के समान जैन साधु निवास करते थे । अरस में बारहवीं
और तेरहवीं शताब्दी के दो कलापूर्ण मंदिर हैं । अरस के पास कृष्णविलास नाम का स्थान है। वहां पर आठवीं से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी तक के बने हुए जैन मंदिर हैं।
१६८९ ई. में चांदखेड़ी में औरंगजेब(?) के समय कृष्णादास नाम के एक धनी बनिये ने महावीर का जैन मंदिर बनवाया और हजारों मूर्तियों की प्रतिष्ठा की । ये मूर्तियां स्थान स्थान पर भेजी गई । इस समय कोटे में किशोरसिंह नाम का राजा राज्य करता था।
सिरोही राज्य में जैनधर्म--सिरोही राज्य में भी जैन धर्म का अच्छा प्रचार हुआ। कालन्द्री के सं.१३३२ के शिलालेख से पता चलता है कि यहां के श्रमण संघ के कुछ सदस्यों ने समाधिमरण के द्वारा मृत्यु प्राप्त की। यहां के राजाओं के राज्य में भी जैनधर्म बहुत फैला । सहज, दुर्जनशाल, उदयसिंह आदि राजाओं के समय में मंदिरों तथा मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई । जब हीरविजयसूरि अकबर के निमंत्रण पर फतहपुर सिकरी जा रहे थे तो रास्ते में सिरोही में ठहरे। यहां के राजा सुतनिसिंहने(?) इनका स्वागत किया। उसने शराब, मांस
और शिकार को त्याग दिया तथा साथ में एकपत्नीव्रत की प्रतिज्ञा ली । उसने जनता पर लगे हुए करों को भी हटा लिया।
जैसलमेर में जैनधर्म:-भाटी राजपूतों के राज्य में जैन धर्म का प्रचार अधिक हुआ। पहिले जैसलमेर की राजधानी लोद्रवा थी। दसवीं शताब्दी में यहां के राजा सगर के जिनेश्वरसूरि की कृपा से श्रीधर और राजधर नामक दो पुत्र हुए जिन्होंने पार्श्वनाथ के मंदिर को बनवाया । इस मंदिर का पुनः निर्माण १६१८ ई. में सेठ थाहसशाह ने किया । लोद्रवा के नष्ट हो जाने पर जैसलमेर राजधानी हुई । लक्ष्मण सिंह के राज्य में १४१६ ई. में चिंता. मणी पार्श्वनाथ का मंदिर बना। मंदिर बनने के पश्चात् इसका नाम राजा के नाम पर लक्ष्मणविलास रखा गया । यह बात जनता की राजा के प्रति प्रीति को प्रदर्शित करती है । इसके राज्य में जैनधर्म अवश्य उन्नत हुआ होगा। लक्ष्मणसिंह के पश्चात् उसका पुत्र वैरीसिंह राजा बना । इसके समय में संभवनाथ का मंदिर बना। इस मंदिर की प्रतिष्ठा तथा मन्य उत्सवों में राजाने स्वयंने भाग लिया ! उसके पश्चात् चाचिगदेव, देवकरण तथा