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भीमद् विजयराजेन्द्ररि-स्मारक-ग्रंथ जैनधर्म की प्राचीनता सदी से बारहवीं शताब्दी तक राजपूताना में जैनधर्मावलम्बी राजा तथा प्रजा कार्यशील थे जिससे यह मत लोकप्रिय हो गया। राजपूताने में शासन करनेवाले चाहमान राजाओं के लेखों से इस बात की पुष्टि होती है। राजा थल्लक की प्रशस्ति में उल्लेख मिलता है कि वह जैनधर्मपरायण था। उसीके वंशज ककुकराजने भगवान् शांतिनाथ की पूजा निमित्त शिवरात्रि पर्व पर आठ मुद्रा दान में दी थीं। उसी प्रसंग में यह भी वर्णित है कि शांतिनाथ की सुन्दर प्रतिमा का निर्माण उसके पितामहने किया थापितामहेन तस्येदं शमीयाट्यां जिनालये । कारितं शांतिनाथस्य विम्बं जनमनोहरम् ।।
(ए० इ० भा० ११, पृ० ३२) । दूसरे लेख में पार्श्वनाथ के मंदिर निर्माण का वर्णन पाया जाता है जो सन् ११६९ ई० में तैयार किया गया । उस लेख का मंगलाचरण ॐ नमो वीतरागाय से प्रारम्भ होता है तथा प्रथम पद में तीर्थंकर महावीर की प्रार्थना की गई है ( ए० इ० भा० २६ पृ० ८९)। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रशस्ति किसी जैन द्वारा ही उत्कीर्ण कराई गई थी। चाहमान राजा के जैनधर्म प्रेमी होने के अतिरिक्त इस मत के प्रचुर प्रचार का आभास मिलता है । जालोर की प्रशस्ति में भी समरसिंहदेव द्वारा पार्श्वनाथ के मंदिर निर्माण का बिवरण मिलता है जिसके विशाल ध्वजस्तम्भ को शासकने ही खड़ा किया था
श्रीपार्श्वनाथदेवे तोरणादिनां प्रतिष्ठाकार्य कृते मूलशिखरे व कनकमयध्वजाः दण्डस्य ध्वजारोपणप्रतिष्ठायां कृतायां ॥
(ए० इ० भा० ११ पृ० ५५) चाहमान राजा राजदेव की मारवार प्रशस्ति में श्री भगवान महावीर के मंदिर तथा स्थानीय जैन साधुओं के भोजन निमित्त विभिन्न दान का उल्लेख पाया जाता है:
श्री महावीरचैत्ये-साधुतपोधननिष्ठार्थे । (ए० इ० भा० ११ पृ० ४३)
इस प्रकार राजपूताना के चाहमान राजाओं के लेखों से जैनधर्म सम्बन्धी अनेक विषयों का ज्ञान हमें होता है । महावीर, पार्श्वनाथ तथा शांतिनाथ के उपासकों तथा उन तीर्थंकरों के पूजा प्रकार का वृत्तांत ही उपलब्ध नहीं होता अपितु जैनधर्म के प्रचार का ज्ञान होता है । उत्तरी भारत में उस समय राजपूताना में ही इस धर्म को विशेष आश्रय मिला था । यह कहना कठिन है कि चाहमान नरेश जैनधर्मावलम्बी थे; परन्तु यह तो निर्विवाद है कि जैनमत से उनका गहरा प्रेम था । मंदिर तथा प्रतिमानिर्माण के लिये दान भी देते रहे।
__ मालवा के परमार राजा भी इस धर्म की ओर विशेष रूप से झुके थे। सन् ११०९ में ऋषभनाथ के मंदिर तथा प्रतिमा निर्माण का विस्तृत वर्णन परमार प्रशस्ति में पाया जाता है । जैनमत का मंगलाचरण-ॐ नमो वीतरागाय यह घोषित करता है कि प्रशस्ति जैनधर्म से सम्बन्धित है, यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि प्रसिद्ध वैष्णवमंत्र-ॐ नमो वासुदेवाय या