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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक -ग्रंथ
जैनधर्म की प्राचीनता
गया तथा वहां पर अपनी विजय का डंका बजाया । वह मालवदेश में भी आया था। इस समय राजस्थान का दक्षिणी-पूर्वी भाग मालव प्रांत में शामिल था ।
वान चांग द्वारा उल्लेख:- बुवान चांग से स्पष्ट पता चलता है कि उसके समय जैनधर्म तक्षशिला से लेकर सुदूर दक्षिण तक फैला हुआ था । राजस्थान में उसने केवल भीनमाल तथा बैराठ के ही बारे में लिखा है । इन दोनों स्थानों पर बुद्धधर्म पतन अवस्था में था । भीनमाल में केवल एक मठ था जिसमें केवल १०० भिक्षु रहते थे । इस स्थान की जनसंख्या अधिकतर अन्य धर्मावलम्बियों थी। बैराठ में आठ मठ थे जो जीर्ण अवस्था में थे । इस प्रकार के उल्लेख से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बुद्धधर्म के साथ वैदिक धर्म तथा जैनधर्म भी इन दोनों स्थानों पर विद्यमान थे ।
बसंतगढ़ के मंदिर में एक प्रतिमा सातवीं शताब्दी की है" । इससे जैनधर्म का राज - स्थान में सातवीं शताब्दी में प्रचलित होने का पता चलता है। आठवीं व नवमी शताब्दी में यह धर्म राजस्थान में हरिभद्रसूरि नाम के महान् विद्वान के प्रयत्नों से अधिक फैला । पहले चित्रकूट ( चितौड़ ) के जितारी राजा के पुरोहित थे, किंतु अन्त में वे जैन साधु हो गये । मुसलमान यात्रियों द्वारा पश्चिमी भारत में जैनधर्म के होने का उल्लेख
आठवी व नवमी शताब्दी में जैनधर्म की स्थिति का पता मुसलमान यात्रियों से भी चलता है | दुर्भाग्यवश वे पूर्ण पर्यवेक्षक नहीं थे । इस कारण उन्होंने अनेक त्रुटियां कीं । उन्होंने प्रत्येक मूर्ति, मंदिर तथा साधु को बुद्ध धर्म का बतलाया जो वास्तव में ठीक नहीं है । बिलादुरी ने तो सूर्यमंदिर को भी बुद्ध मंदिर बतला दिया । यूरोपियन विद्वानोंने इन ग्रन्थों का अनुवाद किया । जैनधर्म तथा बुद्धधर्म के अंतर को नहीं समझने के कारण उन्होंने भी अनेक त्रुटियां कर डालीं ।
अबुजैदुल लिखता हैं-भारत वर्ष में अधिक नर साधु जंगलों में निवास करते हैं । तथा संसार से बहुत कम संबन्ध रखते हैं । कुछ साधु केवल जंगल के फलफूल खाते हैं तथा कुछ नंगे भ्रमण करते हैं और नंगे खड़े रहते हैं । मैंने मेरी यात्रा में एक ऐसे व्यक्ति को देखा जो १६ वर्ष तक लगातार नग्न अवस्था में आश्चर्य की बात तो यह है कि वह विशेषकर जैनियों में पाई जाती है।
एक ही आसन पर खड़ा रहा ।
सूर्य की किरणों से भी नहीं पिघला । नग्न अवस्था बहुत संभव है कि यह जैन साधु था । अशारत विलाद स्वयं यात्री नहीं था, किन्तु वह लेखक था । वह लिखता है कि सिंध के
१२. अर्बुदाचल प्रदक्षिणा जैन लेखसंदोह, ३६५.