________________
राजपूताना में जैनधर्म
डॉ. वासुदेव उपाध्याय, पटना विश्वविद्यालय प्राचीन भारत में जैनमत के प्रसार के सम्बन्ध में विशेष कहने की आवश्यकता नहीं है । समस्त भारत में इस धर्म का प्रचार हो गया था और इसे लोकप्रिय बनाने में राजा तथा प्रजा दोनों संलग्न रहे । मध्ययुग तक इस धर्म का प्रवाह अविच्छिन्न रूप से चलता रहा, परन्तु पूर्वमध्य युग (७०० ई० से १२९० ई. तक ) में उतरी भारत में इसके हास के चिन्ह प्रकट होने लगे थे। विशेषतया पूर्वी भाग में जैनधर्म की अवनति स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है । उडीसा के कलात्मक नमूने-उदयगिरि तथा खण्डगिरि की गुहा तथा लेख ईसवी पूर्व में इस मत की स्थिति के द्योतक हैं और पूर्वी भारत में जैनमत के प्रचार की घोषणा करते हैं । किन्तु यह आश्चर्य का विषय है कि पूर्वमध्ययुग में उस भूभाग के शासकगण की प्रशस्तियों में जैनधर्म सम्बन्धी उल्लेख का अभाव दिखलाई पड़ता है। यो तो पहाड़पुर से प्राप्त एक ताम्रपत्र में एक ब्राह्मण द्वारा कुछ भूमि खरीदने का वर्णन मिलता है जिसकी आय से अर्हत के पूजा निमित्त चंदन, पुष्प, धूप तथा दीप का प्रबंध किया गया था। 'विहारे भगवतां अईतां गन्ध धूप सुमन दीपाद्यर्थम्'-ए. इ. भा. २. पृ. ६ यह जैन विहार उत्तरी बंगाल में तैयार किया गया था और निग्रंथ उपदेशक उसकी देखरेख करता था । इसके अतिरिक्त चीनी यात्री टेनसांग के कथनानुसार निग्रंथ लोगों के देवालय बंगाल में वर्तमान थे। इतना ही नहीं, पूर्वी भारत के अनेक केन्द्रों से तीर्थंकरों की प्रतिमायें भी उपलब्ध हुई हैं। दीनाजपुर से ऋषभनाथ, वर्दवान से शांतिनाथ तथा वांकुडा से पार्श्वनाथ की मूर्तियां विशेष उल्लेखनीय हैं। परन्तु उत्तरी भारत के समस्त पुरातत्व सामग्रियों पर विचार करने से पूर्वी भारत के जैन नमूने नगण्य हो जाते हैं। इसी आधार पर यह कहा जा चुका है कि पूर्व मध्ययुग में जैनमत की अवनति आरम्भ हो गई थी। जो कलात्मक उदाहरण मिले हैं वह कुछ व्यक्तियों के जैनमत से प्रेम तथा शासक के धार्मिक सहिष्णुता के द्योतक हैं । सम्भवतः पाल शासन के प्रारम्भ होते ही बंगाल से जैनमत का पैर उखड़ गया और राजपूताना में शरण मिली ।
राजपूताना से प्राप्त लेखों तक एवं अन्य पुरातत्त्व सामग्रियों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि ८ वीं सदी से राजपूताना तथा पश्चिमी भारत में जैनमत केन्द्रित हो गया था । दसवीं