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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ जैनधर्म की प्राचीनता प्रात्यों की प्राचीनता___यद्यपि आज भी ऐतिहासिक विद्वान् खोज कर रहे हैं, तथापि उनकी प्राचीनता के बारे में किसी को सन्देह नहीं है । क्यों कि व्रात्य भारत का प्राचीनतम सम्प्रदाय है । उसका प्रादुर्भाव वेदों के निर्माण से पूर्व और सम्भव है कि आयों के आगमन से पहले ही हो चुका था। वेद में व्रात्य, द्रविड़, दास, दस्यु, पणि, किरात और निषादादि शब्दों का उल्लेख किया गया है। उन्हें समसमानार्थक तो नहीं कहा जा सकता। हां, व्रात्यों के प्रभाव में आई हुई प्राचीन जातिय अवश्य कहा जा सकता है। क्यों कि डा. श्रीसम्पूर्णानन्दजीने व्रात्यों के विषय में अपना मत प्रगट करते हुए लिखा है:
___"व्रात्य दस्युओं को ये लोग सभ्य आर्यों के अधिक सन्निकट मानते थे।" नगेन्द्रनाथ घोषने लिखा है:
____ "जिन दिनों आर्योंने भारत पर आक्रमण किया उन दिनों पूर्वीय भारत में कई प्रबल अनार्य राज्य थे, आर्यों की छोटी २ बस्तियां चारों ओर शत्रुओं से घिरी थीं । उनको इनसे तो लड़ना ही पड़ता था, आपस में भी तकरार मची रहती थी। ऐसी दशा में रक्षा का एक मात्र उपाय यही था कि अनार्यों को अपने में मिलाकर अपनी जनसंख्या बढाई जाय । जो अनार्य थे इस प्रकार मिलाये जाते थे । वे व्रात्य कहलाते थे और जिन प्रक्रियाओं से उनकी शुद्धि होती थी उनको 'व्रात्यष्टोम ' कहते थे " | इसके विरुद्ध एक तीसरा मत भी है:
___ " व्रात्य शब्द उन आर्यों के लिये आता था जिनके लिये व्यवस्थित समाज में कोई स्थान नहीं था। ये लोग इधर-उधर घूमा करते थे और लूट-पाट भी किया करते थे, आग लगाते और लोगों को विष भी दे देते थे । व्यापार न करके व्याधा ( शिकार ) से अपनी आजीविका चलाते थे । इस से सम्भव है कि व्रात्यों की गणना भी दस्युओं में होती होगी।
डाक्टर अम्बेडकर शब्दों की खोज में लिखते हैं:
"नात्यों का उपनयन संस्कार होता था। यह कहना कठिन है कि व्रात्य आर्य थे अथवा अनार्य । इन्हीं को शुद्ध करने के लिये चार प्रकार के स्तोम बनाये गये हैं"।
ब्रात्यों के विषय में मनुजीने विशेष विधान मनुस्मृति के द्वितीय अध्याय के ३९ वें श्लोक में बताया हैः
अत ऊचं त्रयोऽप्येते यथा कालसमसंस्कृता । सावित्री पतिता ब्रात्या भवन्त्यार्य-विगर्हिताः ॥
मनु. स्मृ. अध्या. २ श्लो. ३९ ॥