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और उसका प्रसार जैनधर्म की प्राचीनता और उसकी विशेषताएँ ५३१
(२) शंकराचार्य ने स्वयं लिखा है कि जैनधर्म बहुत ही प्राचीनधर्म है। अगर जैनधर्म की उत्पत्ति शंकराचार्य के पश्चात् होती तो ये बातें असम्भव थीं। जैनधर्म हिन्दूधर्म से भी प्राचीन है।
बहुत से विद्वान् जैनधर्म को हिन्दूधर्म की शाखा मानते हैं, पर यह बात भी निर्मूल है। निम्नलिखित प्रमाणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म हिन्दूधर्म से भी प्राचीन है।
(१) महाभारत के आदि पर्व के तृतीय अध्याय में २३ और २६ वें श्लोक में एक जैन मुनि का उदाहरण दिया गया है।
(२) डॉ राजेन्द्रलाल मित्र ने योगसूत्रों की भूमिका में लिखा है कि सामवेद के समय एक यति था जो हिंसा को बहुत निन्दनीय समझता था। यह जैन यति भी हो सकता है।
(३) सामवेद में जैनियों के प्रथम और २२ वें तीर्थंकर ऋषभदेव और अरिष्टनेमि का नाम आया है।
(क ) " ॐ नमो अर्हन्तो ऋषभो ॐ ऋषभ पवित्र पुरुहूतमध्वरं यज्ञेषु नग्नं परम साहसं स्तुतं वारं शत्रुजयं तं पयुरिंद्रमाहुरिति स्वाहा" ॥ अध्याय २५ मंत्र १९ ।
(ख ) ॐ रक्ष रक्ष अरिष्टनेमि स्वाहा । वामोदय शान्त्यर्थमुपविधीयते सो अस्माकं अरिष्टनेमि स्वाहा ॥"
( ४ ) ऋग्वेद में १, अध्याय ६, वर्ग १६ में २२ वें सूत्रमें जैनियों के तीर्थकर अरिष्टनेमि का वर्णन आया है।
"ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्तिनः पूषाविश्ववेदाः स्वस्ति नस्ताक्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्तिनो ब्रहस्पर्तिदधातु"
उपर के प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म न तो बौद्धधर्म की शाखा, न हिन्दूधर्म की शाखा है और न इसकी उत्पत्ति शंकराचार्य के पश्चात् हुई; बल्कि यह बहुत प्राचीन धर्म है । और बहुत वर्षों से अनवरत धारा के रूप में प्रवाहित होता चला आरहा है। अब इसकी विशेषताओं पर प्रकाश डाला जा रहा है।
अगर कोई व्यक्ति समाज में अन्य व्यक्तियों की अपेक्षाकृत उत्कृष्ट आदर पाना चाहें तो उसमें अनेक सद्गुणों का विद्यमान होना अत्यावश्यक है। जैनधर्म को उत्कृष्ट धर्म तो हमने मान ही लिया है। अब इस में गुण क्या २ हैं उन पर अब विचार किया जायगा अर्थात जैनधर्म की विशेषताओं का वर्णन किया जायगा ।