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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जैनधर्म की प्राचीनता इसकी उत्पत्ति न तो महावीर के समय ( महावीर को निर्वाणकाल में मतभेद है । कुछ ईसासे ५२७ वर्ष पूर्व और कुछ ४६७ वर्ष पूर्व मानते हैं ) में हुई और न पार्श्वनाथ के समय में ( ८७७-७७७ वर्ष ईसासे पूर्व ) हुई; बल्कि कितने ही समय पूर्व जैनधर्म की उत्पत्ति हो गई थी अर्थात् जैनधर्म अपनी प्राचीनता की धाक रखता आया है।
प्रोफेसर जेकोबी के मतानुसार निम्न दलीलें पेश हैं। जिनसे यह स्पष्ट झलकता है कि जैनधर्म बौद्धधर्म की शाखा नहीं, बल्कि इससे भी प्राचीन है। उसके प्रमाणों का सारांश इस प्रकार है:
(१) अनुगुतरनिकाय के तृतीय अध्यायके ७४ वें श्लोक में वैशाली के एक विद्वान् राजकुमार अभयने निम्रन्थों अर्थात् जैनों के कर्म सिद्धान्तों का वर्णन किया है।
(२) महावग्ग के छठे अध्याय में लिखा है कि सीह नामक महावीरके शिष्यने भगवान बुद्ध के साथ भेंट की।
(३) बौद्धोंने कई स्थानों पर जैनियों को अपना प्रतिस्पर्धी माना है, पर कहीं भी जैनधर्म को बौद्धधर्मकी शाखा नहीं बताया।
(४) बौद्धों ने महावीर के शिष्य सुधर्माचार्य और महावीर के निर्वाणकालका मी उल्लेख किया है।
(५) अनुगुतरनिकाय में जैनियों के धार्मिक आचार के सम्बन्ध में उल्लेख मिलता है।
(६) सम्मनफलसूत में बौद्धोंने लिखा है कि महावीरने चार महाव्रत सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह का प्रतिपादन किया था । पर यह उनकी भूल थी; क्योंकि ये चारों व्रत तो महावीर से २५० वर्ष पूर्व भी पार्श्वनाथ के समय से चले आ रहे हैं जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र के २३ वें अध्याय में यह वर्णन मिलता है कि पार्श्वनाथ के अनुयायी महावीर के समय में भी मौजूद थे और वे इन चार व्रत के पालक थे।
इन अकाट्य प्रमाणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म बौद्धधर्म की शाखा नहीं, बल्कि उससे भी प्राचीन है।
जैन धर्मकी उत्पत्ति शंकराचार्य के बाद हुई यह कहना हास्यास्पद है ।
बहुत से विद्वान् यह मानते हैं कि शंकराचार्य (जगद्गुरु ) के पश्चात् जैन धर्म की उत्पति हुई। पर यह उनका भ्रम है। क्यों कि इन-इन प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि जैन धर्म की उत्पत्ति जगद्गुरु शंकराचार्य के पश्चात् नहीं हुई।
(१) सदानंद ने अपने शंकरविजयसार नामक सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ में लिखा है कि शंकराचार्यने कई स्थानों पर जैन मुनियों से शास्त्रार्थ किया था ।