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और उसका प्रसार जैनधर्म की प्राचीनता और उसकी विशेषताएँ ।
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प्राप्ति नहीं हो सकती और इसी कारण जीवन में सफलता नहीं मिल सकती । यह जैनधर्म की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता है ।
जैनधर्म की तीसरी विशेषता अहिंसा है । ज्योंहि हम जैनधर्म का अध्ययन करते हैं तो अहिंसा हमारा ध्यान शीघ्रातिशीघ्र आर्कषित कर लेती है । जैनधर्म में स्थान २ पर अहिंसा का उल्लेख है । अहिंसा अर्थात् प्रत्येक जीव की रक्षा करना, किसी को मृत्यु के घाट उतारना | चाहे वह जीव एकेन्द्री हो चाहे पंचेंन्द्रिय । प्रत्येक जीव पर समभाव रखना। चाहे वह मित्र हो या शत्रु । इसी लिए "जैनधर्म का प्राण समन्वय और समभाव ही है | Live and Let live अर्थात् जीओ और जीने दो यह शिक्षा जैनधर्म देता है । अहिंसा जैनधर्म की सर्वोत्तम विशेषता है- आदर्श है ।
चौथी विशेषता सत्य है । एक विद्वनने जैन की परिभाषा करते हुए कहा है कि " सत्य, अहिंसा और संयम का अभिलाषी मात्र ही जैनी है ।
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"जैनधर्म में अठारह पापों में प्रथम पाप असत्य ही बताया है। इससे जैनधर्म में सत्य की महिमा स्पष्टतया झलकती है। बहुत से उदाहरणों के अध्ययन से यह पता लगता है कि अपराधी के दण्ड भी सत्य बोलने से रुक जाते हैं । सत्यकथन अधिकतर कड़े होते हैं, क्योंकि सत्य से स्वार्थियों के स्वार्थ पर आघात पहुँचता है। इसलिए सत्यभाषी अक्सर पीछे रहता है । चाहे कितनी ही बड़ी कठिनाई आजाय, पर हमें सत्य से डिगना नहीं चाहिये । जैसे 'जैन जगत के उज्जवल तारे' नामक पुस्तकों में सत्य भाषण के वहुत उदाहरण मिलते हैं कि उस समय श्रावकों में सत्य की अटलता कैसी प्रबल थी और उनके सत्य बोलने से ही उनका उद्धार हुआ ।
जैनधर्म दया, क्षमा, शूरता का पाठ भी हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है । दया और क्षमा के लिए महावीर और गौशाला का उदाहरण पर्याप्त है। दीक्षा धारण के अनन्तर की बात है । महावीर जंगल में कुमार नामक ग्राम में कायोत्सर्ग कर रहे थे । उस समय एक ग्वाला अपने ढोर भगवान महावीर के समीप छोड़कर कार्यवश आगे चला गया और पुनः लौटने पर दोरों को न पाकर भगवान महावीर को उल्टा सीधा सुनाने लगा और उनको मनमानी पीड़ायें दीं। फिर भी महावीरने बुरे के साथ भलाई का व्यवहार ही किया । ईंट का जवाब ईंट से नहीं, बल्कि फूल से दिया अर्थात् उसे क्षमा करदिया । क्योंकि --
" जो तोकूं कांटा बुवे, ताहिं बोय तू फूल । तो फूल को फूल है, बाक है तरशूल ||
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