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और उसका प्रसार जैनधर्म की ऐतिहासिक खोज ।
(३ ) वह पूर्वदिशा की ओर गया। उसके पीछे देवता चले। सूर्य-चन्द्र सभीने-पूर्वी संसारने उसका अनुगमन किया।
( ४ ) जो ऐसे व्रात्य की निन्दा करता है वह संसार के देवताओं का अपराधी होता है। व्रात्य का स्वरूप:
व्रात्य " प्रजापति " " परमेष्ठी " " पिता" और "पितामह " है। विश्व व्रात्य का अनुसरण करता है। श्रद्धा से जनता का हृदय अभिभूत हो जाता है। व्रात्य के अनुसार श्रद्धा, यज्ञ, लोक और गौरव अनुगमन करते हैं ।
व्रात्य राजा हुवा । उससे राज्यधर्म का श्रीगणेश हुवा । प्रजा, बन्धुभाव, अभ्युदय और प्रजातन्त्र सभी का उसी से उदय हुवा । व्रात्यने सभा, समिति, सेना आदि का निर्माण किया।
" ते प्रजापतिश्च परमेष्ठी च पिता च पितामहश्चापश्च श्रद्धा च वर्ष भूत्वानुव्यवर्तयन्तः । एनं श्रद्वा गच्छति एनं यज्ञो गच्छति एनं लोको गच्छति । सोऽअरज्यत् ततो राजन्योऽजायत, स विशः स बन्धूनभयघमभ्युदतिष्ठत् ।।"
-अथर्ववेद, १५ काण्ड इन शब्दों द्वारा भगवान् ऋषभदेव का प्रारम्भिक परिचय दिया है। कृषि, मसि, असि कर्मयोग का व्याख्यान व्रात्यने प्रथम २ उसी में दिया ।
अयोध्या पूर्व की राजधानी है और ऋषभदेव की जन्मभूमि । फिर ऋषभदेव के संन्यास, तप, विज्ञान और उपदेश सभी का यथाक्रम वर्णन किया है।
व्रात्यने फिर तप से आत्मसाक्षात्कार किया, सुवर्णमय तेजस्वी आत्म लाभकर व्रात्य महादेव बन गये। ( स महादेवोऽभूत् )।
व्रत्य पूर्व की ओर गये, पश्चिम की ओर गये, उत्तर, दक्षिण चारों दिशाओं की ओर उन्मुख हुए । चारों ओर उनके ज्ञान, विज्ञान का आलोक फैल गया । विश्व श्रद्धा के साथ उनके सामने नत मस्तक हो गया।
व्रात्य की नारी श्रद्धा थी, मागध उनका मित्र था, विज्ञान उसके वस्त्र थे । व्रात्य एक वर्षतक निरन्तर खड़ा ही रहा। वह तपस्या में लीन था। देवताओंने कहाः___ "व्रात्य ! किं तु तिष्ठसि । " " व्रात्य ! तुम क्यों खड़े हो !"
"वेद आस्तरणम् , ब्रह्मोपबहणम् " व्रात्य का ज्ञान ही बिछौना था। अथर्ववेद १५ वा काण्ड | और ब्रह्मचर्य उसका सिरहाना था । देवजन उसके सिपाही, विद्वान्गण संकल्प से ही दूत तथा समस्त प्राणी उसके सभासद थे।