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और उसका प्रसार
जैनधर्म की ऐतिहासिक खोज ।
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सामने खड़ा है
वह मनुष्य की
विना आचार को जैनधर्म में एक मिथ्याचार बताया गया है। संसार में जिस दिन बुराइयों के विरोध में भोग को त्याग से प्रताड़ित करवाया गया था व भूत, देव और स्वर्ग तथा इन्द्र की दासता से मानवता को मुक्ति दिलाई गई थी उसी दिन जैनधर्म का स्वरूप विकसित हुआ था | जैनधर्म अहिंसा का झण्डा उठाये संसार के पाशविक वृत्तियों से झूझता आया है-उसका विचारों के रूप में जन्म तो संसार की सभी आत्माओं में होता है; क्योंकि आत्मा के स्वभाव का नाम ही जैनधर्म है । किन्तु एक विशिष्ट पद्धति, अहिंसक की व्याख्या तथा आत्मविकास का मार्ग, तत्वज्ञान और पद्धति, आचार तथा विचार - मीमांसा के नाते हम जैनधर्म के उदयकाल को खोजना प्रारम्भ करें तो हमें व्रात्यधर्म को जानना होगा । और व्रात्यधर्म के संस्थापक भगवान ऋषभदेवजी इस धर्म के संस्थापक थे । वे जितने प्राचीन हैं- उतना ही उनके धर्म का उदयकाल प्राचीन है ।
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व्रात्य धर्म का अन्य धर्मों पर प्रभाव:
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से व्रत और ब्राह्मणों से कर्मने समन्वित होकर आर्य धर्म को स्वरूप दिया है। किन्तु हमारे इस विशाल विश्व पर व्रात्यों की अहिंसा व्रत की छाप जितनी गहरी और गम्भीर पड़ी है, उतनी सायद अन्य किसी धर्म की नहीं पड़ी है। भारत में वेद के माननेवालों में ही यज्ञविरोधी भावना तथा अहिंसादि व्रतों का प्रभाव बास्यों की देन है । बौद्धधर्म इसी व्रात्य - धर्म की एक शाखा है । स्वयं महात्मा बुद्धने मज्जिमनिकाय में यह स्वीकार किया है कि मैंने वात्यधर्म के (जैनधर्म) साधु के पास रह कर ही श्रमण धर्म की दीक्षा ली और ज्ञान सीखा था । उस जैन साधु का नाम पिथा गुरु था । बुद्धने कहा है कि मैं वस्त्र - रहित रहा, हाथ पर भोजन करता था । लाया हुआ उच्छिष्ट और निमंत्रण का भोजन नहीं खाता था । मछली - मांस, मदिरा और घास का पानी नहीं पीता था । केशों का लुंचन करता, पानी के जीवों पर भी दया करता था । परिषद सहन करता और ध्यान-मग्न रहता था ।
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बौद्ध भिक्षुओं तक स्वीकार किया है कि महात्मा बुद्ध पर भगवान पार्श्वनाथ के साधु पिहितास्भव की गहरी छाप पडी थी । भगवान बुद्ध के अंतरंग में व्रात्यों का ज्ञान ही भरा पड़ा था । उसीके आधार पर कुछ मतभेदों के साथ उन्होंने बुद्धधर्म की व्यवस्था की है।
ईस्वी सन् ५९० वर्ष पहले ये जन्मे थे । यूनान इन का देश था। भारत में यात्रार्थ आये हुए इन्हें व्रात्य मुनियों से वैराग्य लगा । इटली के नूमापोम्पिलयस - राजा को अपना शिष्य बनाया था । सन् १८ में उत्पन्न हुए लैटिन के कवि ओविद ने पिथागुरु का चरित्र और उनकी शिक्षाएं लिख कर प्रसिद्ध की थी । पिथागुरुने जैन तत्व ज्ञान को बहुत ही सुन्दर रूप