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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-थ जैनधर्म की प्राचीनता ___ जो व्यक्ति इस प्रकार के व्रात्य स्वरूप से परिचय प्राप्त कर लेता है उसके पास समस्त प्राणी निर्भय हो जाते हैं। " व्रात्य का संधतंत्र"
प्रात्य सभी दिशाओं का राजा है। पूर्व दिशा उसके राज्य में मुख्य कर्मचारी है (जैन तीर्थंकर देव का पूर्व में धर्म प्रधान रहा है )। ( वैदिक धर्मावलम्बी तो अंग-वंग, कलिंगादि पूर्व देशों में जाना प्रायश्चित्त का कारण मानते हैं)। रुद्र उस व्रात्य वा भृत्य है । " रुद्रमेनमिष्वासो ध्रुवाया दिशो अन्तर्देशादनु० इत्यादि । व्रात्य के राज्य में " नास्य पशून् समानान् हिनस्ति " पशुओं को समान समझा जाता है। उन्हें मारा नहीं जा सकता है । हिंसा निषिद्ध है।
व्रात्य सभी दिशाओं का स्वामी है। जैन धर्म के अनुसार तीर्थंकर देव १८ भावदिशाओं के नाथ होते हैं । १८ भाव-दिशाओं का विश्लेषण जैनधर्म में आचारांग अध्याय १ के प्रारम्भ में ही मौलिक रूप से किया गया है।
व्रात्य ऊर्ध्व दिशा की ओर गये। वहां वह सिद्धावस्था में अवस्थित है । वह व्रात्य ही समस्त व्रतों का विधाता और करुणा का समुद्र है। "व्रात्यने ही मनुष्य को अन्न और अन्न खाने की शक्ति दी है " ( जैनशास्त्र कल्पपूत्र ऋषभदेव वर्णन में)
"व्रात्य प्रेम का राजा था। उसीने सभी समिति की नींव डाली।" व्रात्य के आदररूप में अथर्ववेद में बहुत विस्तृत व्याख्या दी गई है । जैसे
जो व्रात्य परमव्रात्य के स्वरूप को जान कर राजा के घरों में अतिथि हो कर आता है तो राजा और प्रजा व्रात्य को अपने आत्मा के कल्याण का मार्ग मान कर उसका आदर करे। वैसा करने से क्षात्र बल का और राष्ट्र का अपराध नहीं करता है। "श्रेयांसमेनं आत्मनो मानयेत् तथा क्षत्राय न वृश्चते राष्ट्राय न वृश्चते " अथ० वे० १५ काण्ड । क्यों कि उसी व्रात्य से क्षात्र और ब्रह्मबल उत्पन्न हुए हैं।
__ वह व्रात्य जिस निर्दोष गृहस्थ की गृही बस्ती में एक रात्रि अतिथि रूप में ठहर जाता है । (एकां रात्रिमतिथि गृहे वसति) । वह गृहस्थ पृथ्वी के पुन्य का उपार्जन कर लेता है। दो-चार रात्रि बिता लेता है तो असीम लाभ प्राप्त होता है।
यज्ञ के समय व्रात्य आ जाय तो याज्ञिक को चाहिए कि व्रात्य की इच्छानुसार यज्ञ को करे अथवा बन्द कर दे । जैसा व्रात्य यज्ञविधान करे वैसा करे ।
विद्वान् ब्राह्मण व्रात्य से इतना ही कहे कि जैसा आप को प्रिय है वही किया जायगा।