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और उसका प्रसार जैनधर्म की ऐतिहासिक खोज । और धातुयुग में जाना पड़ेगा जहां · मोहनजोदड़ो' और ' हरप्पा' की सैन्धव और व्रात्य सभ्यता की जन्म कहानी शिलाङ्कित की गई है।
व्रात्य सभ्यता का प्रभाव उत्तर पश्चिम के सैंधवों और दक्षिण के द्रविड़ों, पूर्व के आयों, क्षत्रियों तथा मगध के जनपदों पर व्यापक रूप से पड़ा था। क्यों कि उनकी धार्मिक विशेषता सर्वजातिसमानत्व का विधान करती थी। किन्तु आर्यों का अग्नि-पूजन, यज्ञक्रिया विभिन्न जातियों से बंधी हुई थी। उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय ही मुख्य रूप से भाग ले सकते थे । अतः पुरातत्व के आधार पर भी यदि दोनों संप्रदायों का विश्लेषण किया जाय तो हमें कहना पड़ेगा कि प्रारम्भ से ही जो यज्ञ के शिलालेख, यज्ञ की प्रस्तरीय प्रतिकृति जहाँ-जहाँ उपलब्ध हैं, वहाँ-वहाँ ब्राह्मणों के सिवाय अथवा ब्रह्मर्षियों के सिवाय दूसरी जाति का दर्शन आप को नहीं मिलेगा । तक्षशिला, मोहनजोदड़ो, हरप्पा, मथुरा के टीले से मिले शिलालेख, उड़ीसा की हाथीगुफा से प्राप्त खारवेल के शिलालेख, उज्जैन की प्राचीनतम प्रस्तर कृतिये इन मुनियों को, ऋषभदेव को, धार्मिक-सभा को, उपदेशों को अधिक व्यापक और सर्वजाति और सर्वजीवसमानत्व के लिये विश्वप्रेम प्रकट करती हैं । आर्यों से पूर्व भारतवर्ष में द्रविड़ों और अग्नेयों का पर्याप्त विकास हो चुका था । आर्य-पारसी
भारत में अहिंसा का दर्शन प्राचीन कालसे विकसित होता आया है और उसका मूल स्रोत व्रात्यों से है । आर्य जातियों का पारसियों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है अपेक्षाकृत व्रात्यों के
जैद अवेस्ता और ऋग्वेद के मंत्रों और देवताओं में पारस्परिक विरोध और अविरोध मौलिक एकता को प्रकट करता है। ईरानी और आर्यन शब्द का एक ही अर्थ है। अहूर मज्द और असुर दोनों एक ही शब्द है । ( विस्तार से अन्यत्र अथवा पारसी धर्म पर लेखक का स्वतंत्र भाषण पढ़िये ) अँद अवेस्ता और ऋग्वेद की याज्ञिक सभ्यता अग्निपूजक पारसियों के साथ अधिक समानता रखती है। किन्तु वैदिक अहिंसा का विवरण व्रात्यों से प्रभावित हो कर ही प्राचीन आर्यों में विकसित हुआ है।
यद्यपि हमें वेद के उन तमाम मंत्रों में से कतिपय याज्ञिक मंत्रों और अहिंसा प्रतिपादक मंत्रों का अवगाहन करना पड़ेगा। जिन से दोनों विचारधाराओं की प्राचीनता, समवय. स्कता और मौलिक विभिन्नता का भी पूर्णतया बोध हो सके । ऋग्वेद के सहस्रों मंत्रों में सर्वविचारसमन्वय के सूक्त अपना अलग महत्व रखते हैं । तो भी निष्पक्ष रूप से प्रात्य और यज्ञ को केन्द्र में रख कर मंत्रों का वर्गीकरण करें जिस से याज्ञिकों और ब्रात्यों की मूल मान्यताओं को ढूंढा जा सके ।