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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ
जैनधर्म की प्राचीनता
युग में व्रात्यों की किस प्रकार पूजा थी । अन्तर इतना है कि स्मृतिकारोंने व्रात्यों को अपराधी के रूप में उपस्थित किया है और वेदोंने व्रात्यों को विश्ववन्द्यों और महाव्रतियों के रूप में । यद्यपि किसी न किसी स्थान पर वेदों में व्रात्यों के विषय में विपरीत भावना का भी अंश पाया जाता है, किन्तु अधिकांश में ब्रात्यों के गुणगान ही गाये गये हैं ।
व्रात्यों के प्रति वेद की श्रद्धाञ्जलिः
अथर्ववेद सुबोध भाष्य १५ काण्ड, ( ऋषि अथर्वा देवता अध्यात्म व्रात्य ) में व्रात्य का अर्थ इस प्रकार किया गया है:
व्रातः — समूहः, समाज, संघ, मनुष्य, सर्वभूतवर्ग के हितकर हैं जो, व्रात्य कहलाते हैं । पं० जयदेवकृत भाष्य आर्य साहित्य मंडल, अजमेर द्वारा प्रकाशित के अनुसार व्रात्य का जो विवरण उपस्थित किया गया है वह इस प्रकार है: - व्रात्यः त्रियन्ते देहेनेति व्रताः, तेषां समूहाः व्राताः, जीवसमूहाः इत्यर्थः । तेषां पतिर्ब्रात्यः परमेश्वरः, वृण्वन्ते इति व्रताः, तेभ्यो हितः व्रात्यः । व्रतेषु भवो वा व्रात्यः ।
अर्थात् जो देहधारी आत्मायें हैं, जिन्होंने अपनी आत्मा को देह से ढंका हैं, इस प्रकार के जीवसमूह समस्त प्राणाधारी चैतन्यसृष्टि उसके जो स्वामी हैं वे व्रात्य कहलाते हैं । अथवा जीवों के लिये जो हितकर उपदेश देते हैं, अथवा व्रत में दीक्षित हैं और व्रत का ही विश्व को विधान देते हैं वे व्रात्य कहलाते हैं । अथर्ववेद १५ वां काण्ड |
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जैन धर्म में व्रती को त्रस - स्थावर जीवों का स्वामी कहा गया है। ये व्याख्यायें ठीक जैनशास्त्र में उल्लिखित श्रमण की व्याख्याओं के अनुरूप हैं। व्रती के अर्थ में ही जैन, वैदिक के दृष्टिकोण का समय नहीं अपितु वेदों का व्रत्य जैनों का महाबाध्य साधु हैं । जैन साधु और after desiदेव श्रीऋषभदेव आदि अरिहन्तों का जिस प्रकार वर्णन जैनशास्त्रों में उपस्थित किया गया है उसी प्रकार अथर्ववेद के १५ वें काण्ड में २२० मन्त्रों में व्रात्य तीर्थंकर के जीवन का वर्णन प्राप्त होता है। संक्षेप में उसे उपस्थित करने का यहां भी प्रयत्न किया जा रहा है । यथा:
( १ ) वह व्रात्य प्रजापति चराचर जीवों का प्रतिरूप में प्राप्त हुवा | (२) उस प्रजापतिने आत्मा का साक्षत्कार किया, आत्मा का स्वरूप दिव्य स्वर्णमय था ।
" व्रात्य आसीदीयमान एव स प्रजापतिं समैश्यत् ॥ १॥ स प्रजापति सुवर्णमात्मानमपश्यत् । तत् प्राजनयत् ॥ श उदतिष्ठत् ॥ २ ॥ स प्राचीं दिशमनुव्यचलत् ॥ तं बृहच्च रथतरंचादित्याश्व विश्वे च देवा अनुब्यचलन् ॥ ३ ॥ य एवं विद्वांसं उपवदति एवमत्राद्यं गच्छति य एवं वेद ॥ ४ ॥