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और उसका प्रसार जैनधर्म की ऐतिहासिक खोज ।
ब्राह्मण का उपनयन-संस्कार १६ वर्ष तक, क्षत्रिय का २२ वर्ष तक और वैश्य का २४ वर्ष तक हो जाना चाहिये । यदि यह समय बीत जाय तो ये तीनों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ) व्रात्य हो जाते हैं और आर्यगर्हित हो जाते हैं ।
रामाश्रयी टीका कारने “ शरीरायासजीवि, व्याधादिवती, व्याधा आदि शरीरश्रम से जीविका चलानेवाले को व्रात कहा है अथवा जो वात–अर्थात् जो नियमन के योग्य हैं, दबा कर रखने के योग्य हैं उन्हें व्रात्य कहा जाता है।"
ये सभी मत अपने आप में ही अपूर्ण हैं । इसी विषय में एक पाश्चात्य विद्वान् जर्मनी के ट्यूविंगेन विद्यापीठ के डाक्टर हावरने खोजपूर्ण निबन्ध लिखते हुये अपना मत स्थिर किया है, जिसे हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा " भारतीय अनुशीलन" ग्रन्थ में प्रकाशित किया गया है।
" व्रात्य का अर्थ व्रत में दीक्षित है । व्रात्यलोग आर्य थे, परन्तु प्रचलित यज्ञयागप्रधान वैदिक धर्म को वे नहीं मानते थे । वे एक प्रकार के साधु होते थे। एक विशेष प्रकार की वेशभूषा धारण किये घूमा करते थे। उनके उपास्य रुद्र ( ऋषभ ) थे। उपासना की विधि योगाभ्यासमूलक थी।"
हावर के मतानुसार अथर्ववेद में उस महाव्रात्य महादेव (ऋषभदेव ) की महिमा की गई है। उनका कहना है कि जो दार्शनिक विचार पीछे से सांख्ययोग के रूप में विस्तृत हुये उनका मूलस्रोत व्रात्यों की उपासना तथा उनका ज्ञानकाण्ड था एवं व्रात्य सम्प्रदाय ही परवर्ती काल के साधु संन्यासियों का पूर्वरूप था।
अन्त में मैं भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचता हूँ कि व्रात्य के सम्बन्ध में यदि निश्चित मत अनुसन्धान करना ही है तो वेदों के भाष्य कर्ता सायण से बढ़ कर पते की बात कौन कहेगा । अतः वेदों के व्रात्य के सम्बन्ध में सायणने टिप्पण करते हुये लिखा है:
"न पुनरेतत् सर्वव्रात्यपरं प्रतिपादनम् , अपितु किञ्चिद्वित्तमं महाधिकार पुण्यशीलं विश्वसंमान्यं कर्मपराह्मगैर्विद्विष्टं व्रात्य मनुलक्ष्य वचनमिति मन्तव्यम् ।"
-सा० भा० यद्यपि सभी व्रात्य आदर्श पर इतने ऊंचे चढे हुये न हों, किन्तु व्रात्य स्पष्टतः परमविद्वान् महाधिकारी पुण्यशील विश्ववंद्य कर्मकाण्ड को धर्म माननेवाले ब्राह्मणों से विशिष्ट महापुरुष थे।
इससे प्रामाणिक मत सम्भव है अन्यत्र न मिल सके, क्योंकि अथर्ववेद के १५ वें काण्ड में व्रात्यमहिमा का जो महागान गाया गया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वैदिक