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और जैनाचार्य
अपभ्रंश साहित्य का मूल्यांकन ।
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दी जाती थी । राजकुमारियाँ संगीत और नृत्य में बहुत शिक्षा ग्रहण करती थीं । विवाह संबन्ध ढीले थे। वेश्या नृत्य और द्यूतक्रीड़ा का बहुत रिवाज था । उत्तम समाज में जलक्रीड़ा, संगीत, नृत्य, प्रेक्षण आदि काफी लोकप्रिय थे । जब कि जनता, चर्चरी, रासलीला, दोलाक्रीड़ाआदि को पसंद करती थी । मल्लयुद्ध बहुत लोकप्रिय था । लोकाचार और अंधविश्वास बहुत थे । शकुन और अपशकुन, भूत-प्रेत में विश्वास था । धर्म में आडंबर था । यद्यपि भक्ति की धारा उठ पड़ी थी । साम्प्रदायिक युद्धों के बीच सहिष्णुता बढ़ रही थी । बाजार वस्तुओं से भरे थे, पर वस्तुओं में मिलावट भी थी ।
दार्शनिक खण्डन - मण्डन भी इस साहित्य में हैं । मुख्य रूप से पशुबलि, वैदिक कर्मकाण्ड और ब्रह्मणवाद की आलोचना है। दर्शनों में चार्वाक, क्षणिकवाद, मीमांसा और सांख्यदर्शन की ही चर्चा है। हिंसा और नरबलि के कारण वाममार्गी, दैवी सम्प्रदाय और कोल और कायालिक मार्ग की खूब निंदा है । ईश्वरवाद की आलोचना इनके लिए स्वाभाविक थी । फिर भी ये कवि वर्णव्यवस्था को उठा देने के पक्ष में नहीं हैं। वर्णशंकर को ये बुरा बताते हैं । जैनधर्म में आडम्बर बहुत था । उपवास, रात्रिभोजनत्याग और पञ्चकल्याणक का असीम पुण्य फल बताया गया है। जिनपूजा और मंदिर प्रतिष्ठा का उत्साह के साथ वर्णन है । मंदिर का सामाजिक उपयोग भी होता था । बिम्बप्रतिष्ठा में वैदिक विधि का पूरा अनुकरण था । अन्य देवी-देवताओं की उपासना भी थी । वास्तव में इस युग की धर्मसाधना का लक्ष्य लौकिक अभ्युदय ही था । यह बात अवश्य है कि ये कवि धार्मिकता का उपयोग अपने पात्रों के चरित्र में नैतिक क्रांति लाने के लिए करते हैं । अपभ्रंश कवि कथा - चरित्र और आख्या - यिका में भेद नहीं करते । शिव और जिन की तुलना और ब्रह्ममेद इस साहित्य की प्रमुख विशेषता है । इसका मुख्य कारण था, शैवों और जैनों का सह अस्तित्व । दूसरा कारण है, शिव के स्वरूप आर्य-अनार्य तत्त्वों का मेल । जैन साहित्य में शिव और ऋषभ की एकता बहुत समय से मानी जाती रही है । इस दृष्टि से विष्णु की अपेक्षा शिव का दर्जा इस साहित्य में ऊंचा है। तुलसीदासने भी राम और शिव में भी अभेद दिखाने का प्रयत्न किया है। 1