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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक -ग्रंथ
जिन, जैनागम
अपभ्रंश छन्दों का मेद और विभाजन कई तरह से हो सकता है । पर यह निश्चित है कि उसमें शास्त्रीय और लोक छंदो का प्रयोग बराबर हुआ है। छंद में यह साहित्य समृद्ध है । मात्रिक छंदो का मूल ' दुवइ ' है । वस्तुतः अनुप्रास, यमक, मात्रा और यति के भेद से अपभ्रंश छंद के भेद-प्रभेद हुए । विषय और प्रयोग से भी इन में छंद बदलता है । लय और गेयत्व का इसमें विचार रखा जाता है । अन्त्यानुप्रास अपभ्रंश छन्द की आत्मा है । वर्ण वृत्तों में भी यही बात है । अपभ्रंश कडवक मात्रिक छंद से नहीं, अपितु वर्ण छंदों से भी बनते हैं । इस प्रकार लोकभाषा काव्य में शास्त्रीय छंद का प्रयोग बहुत प्राचीन है । पर अन्त्यानुप्रास की पाबंदी वर्ण वृतों में भी है। इससे सिद्ध है कि अपभ्रंश में संस्कृत छंद उसीकी प्रकृति में ढल कर आए । अन्त्यानुप्रास (तुक ) और दो पदों की समानता अप० कवि के छंदों का मुख्य आधार है। पदों में भी यही बात है। अप० कवि छंदों में संगीत का भी देते हैं। स्वयंमू और पुष्पदंत इसके उदाहरण 1
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प्रकृति चित्रण में भी अपभ्रंश साहित्य समृद्ध है । हिन्दी आलोचना में प्रकृति चित्रण की विधाओं का कोई निश्चित क्रम नहीं । वस्तुतः प्रकृति चित्रण की विधाऐं होनी चाहिये शुद्ध, उद्दीपन, अलंकृत और आरोपित शैली । इन सभी में प्रकृति चित्रण इस साहित्य में उपलब्ध है । शुद्ध प्रकृति चित्रण के दो भेद हैं- पृष्टभूमि और यथातथ्यप्रकृति चित्रण | पर इन में भेदक रेखा खींचना कठिन है । अलंकृत शैली में मानवी करण उपमा उत्प्रेक्षा की शैलियाँ आ जाती हैं। आरोपित वाद में रहस्यवाद आदि की विधायें खप जाती हैं। ये कवि प्रकृति के उम्र और मधुर दोनों रूप वर्णित करते हैं । उपालंभ और अतिशयोक्ति नहीं हैं । प्रकृति चित्रण से ये दार्शनिक निष्कर्ष भी निकालते हैं । परिगणन की परिपाटी भी है । प्रकृति में नारी रूप देखना अप० कवियों को अच्छा लगता है । रावण के सीताहरण पर नंदनवन की समूची प्रकृति विद्रोह कर उठती है । पुष्पदंत का यह प्रकृति - विद्रोह वर्णन सचमुच विश्वसाहित्य में भी अनूठा हैं
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समाज चार वर्णों में विभक्त था । जातियों की उत्पत्ति में मतभेद था । परिवार प्रथा सम्मिलित थी और उसमें झगड़े टंटे थे । बहुविवाह प्रथा थी। आर्थिक विषमता थी । पर राज्य और वैश्य परिवार सम्पन्न थे । राजनैतिक दृष्टि से सार्वभौम सत्ता के लिए युद्ध होते रहते थे । उच्च वर्ग की शिक्षापद्धति अच्छी थी, उसमें युद्ध और कला के अध्ययन की व्यवस्था थी । पर साधारण जनता निरक्षर ही थी । राजदूत का पद महत्व का था । राजतंत्र होते हुए भी राजा के अधिकार सीमित थे । राजपुर के राजा को धनवई के लिए इस लिये छोड़ना पड़ा; क्यों कि प्रजा विरुद्ध हो उठी थी । संस्कृत, प्राकृत के साथ अप० साहित्य की भी शिक्षा